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________________ ६३४ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ विषयत्वेनाऽनियतविषयम् , यथाऽव्यापृतचक्षुरादिकरणग्रामस्य सदसती तत्त्वम्' इति ज्ञानं, सकलाक्षे. पेण व्याप्तिप्रसाधकं वा । न चात्राप्यात्माऽन्तःकरणसंयोगस्य शरीराद्यपेक्षाकारणसस्कृतस्य व्यापार इति वक्तु युक्तम् , अन्तःकरणस्याणुपरिमाणद्रव्यरूपस्य प्रमाणबाधितत्वेनानभ्युपगमाहत्वात संयोगस्य च निषिद्धत्वात । शरीरादीनां तु ज्ञानोत्पत्तिवेलायां सन्निधानेऽपि तद्गुण-दोषाऽन्वय-व्यतिरेकानुविधानस्य तज्ज्ञानेऽनुपलम्भान्नापेक्षाकारणत्वं कल्पयितुयुक्तम्, तथापि तत्कल्पनेऽतिप्रसंग: । देशकालादिकं च विशुद्धज्ञानक्ष गस्यान्वयिनो ज्ञानान्तरोत्पादने प्रवर्तमानस्यापेक्षाकारणं न प्रतिषिध्यते मुक्त्यवस्थायामपि शरीरादिकं तु तस्यामवस्थायां कारणाभावादेवानुत्पन्नं नापेक्षाकारणं भवितुमर्हति । यदि च सेन्द्रियशरीरापेक्षाकारणमन्तरेण ज्ञानादेरुत्पत्ति भ्युपेयेत तदा तथाभूतापेक्षाकारणजन्यज्ञानस्य चक्षुरादिज्ञानस्येव प्रतिनियतविषयत्वं स्यादिति 'सदसद्वर्गः कस्यचिदेकज्ञानालम्बनः प्रमेयस्वाद, पंचांगुलियत' इत्यतोऽनुमानादनमीयमानं सर्वज्ञानमपि प्रतिनियतविषयत्वान्न सर्व विषयं स्यात् । यदि पुनस्तज्ज्ञानं सकलपदार्थविषयत्वात तज्जन्यं “अर्थवत प्रमाणम्" इति वचनात से न्द्रियशरीरापेक्षाकारणाऽजन्यं वाऽभ्युपगम्यते अन्यथा सर्व विषयावं न स्यादिति तहि मुक्त्यवस्थायामपि देहा मानने योग्य नहीं है । आत्मा से अव्यतिरिक्त नित्यसुख को जब हम मानते हो नहीं है तब आपने जो उसके ऊपर यह दोषारोपण किया है कि-नित्यसुख और उसका सवेदन संसारावस्था में भी रहने से मुक्ति और संसार अवस्था का भेदविच्छेद हो जायेगा-इस का नित्यसुख के अस्वोकार से ही तिरस्कार हो जाता है। [ मुक्ति में सुख की उत्पत्ति का हेतु ] अनित्य सुखसंवेदन पक्ष में आपने जो यह कहा था कि-[६०१-६] मुक्ति अवस्था में अनित्य सुख की उत्पत्ति में कौन सा आपेक्षाकारण है यह दिखाना चाहिये, (शरीरादि )अपेक्षाकारणरहित सिर्फ आत्ममन.संयोग को ज्ञानादि का कारण नहीं मान सकते....इत्यादि-वह भी असंगत है। शरीर को या आत्ममन:संयोग को हम ज्ञान-सुखादि का कारण नहीं मानते किन्तु चैतन्यधर्म के अनुयायी होने के कारण ज्ञान-सुखादि को चैतन्य का उपादेय मानते हैं यह पहले 'तस्माद्यस्यैव०' इस कारिका से कहा हआ है। तात्पर्य, चैतन्य ही ज्ञानादि का कारण है। इन्द्रियसहितदेहादि को ज्ञानोत्पत्ति का कारण आप मानते हैं किन्तु सकलज्ञान के प्रति व्यापकरूप से वह कारण नहीं है। जैसे देखिये-इन्द्रियसहितदेहादि अपेक्षाकारण व्यापार के विरह में भी समस्तज्ञेयविषयक, अत एव अमर्यादितविषयवाले विज्ञान का उद्भव दिखता है, उदा० नेत्रादिइन्द्रियवंद को अक्रियदशा में भी 'सत् और असत् ये दो तत्त्व हैं' ऐसा ज्ञान, अथवा वस्तुमात्र का अन्तर्भाव करने वाला सत्त्व-प्रमेयत्व की व्याप्ति का साधक ज्ञान । यह नहीं कह सकते कि- 'वहाँ भी शरीरादिअपेक्षाकारण सहकृत आत्म-मन: संयोग का व्यापार होना चाहिये'-क्योंकि अणुपरिमाणविशिष्ट मनोद्रव्य का स्वीकार प्रमाणबाधित होने से अनुचित्त है और संयोग पदार्थ का भी पहले निराकरण हो चुका है । यद्यपि ज्ञानोत्पत्तिकाल में (संसारदशा में) शरीरादि का संनिधान अवश्य है फिर भी उसको अपेक्षाकारण मानना संगत नहीं है क्योंकि शरीरादि के गुण-दोष के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण ज्ञान में दिखता नहीं है। अन्वय-व्यतिरेक के विना भी यदि शरीरादि को ज्ञान का कारण मानेंगे तो सभी के प्रति सभी को कारण मानने की आपत्ति खडी है । हाँ, देशकालादि को मुक्तिदशा में भी आप अपेक्षाकारण माने तो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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