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प्रथमखण्ड-का० १-मुक्तिस्वरूपमीमांसा
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प्रवर्तमानस्य सरागत्वम् , सम्यग्ज्ञानप्रतिबन्धकरागविगमस्य सर्वज्ञत्वान्यथानुपपत्त्या प्राक प्रसाधितस्वात । भवोपग्राहिकर्मनिमित्तस्य तु वाग्-बुद्धि-शरीरारम्भप्रवृत्तिरूपस्य सातजनकस्य शैलेश्यवस्थायां मुमुक्षोरभावात प्रवृत्तिकारणत्वेनाभ्युपगम्यमानस्य सुखाभिलाषस्याप्यसिद्धेर्न मुमुक्षो रागित्वम् । प्रसिद्धश्च भवतां प्रवत्त्यभावो भाविधर्माऽधर्मप्रतिबन्धकः । यश्च भाविधर्माधर्माभ्यां विरुद्धो हेतुः स एव सञ्चिततत्क्षयेऽपि युक्त इति प्रतिपादितम् ।
अत एव सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्रात्मक एव हेतु विभूतकर्मसम्बन्धप्रतिघातकत्वाद् मुक्तिप्राप्त्यवन्ध्यकारणं नान्य इति । तेन यदुक्तम् 'तत्त्वज्ञानिनां कमविनाशस्तत्त्वज्ञानात्' इति तद्युक्तमेव । यत्त 'इतरेषामुपभोगात इति तदयुक्तम्, उपभोगात तत्क्षयानुपपत्तः प्रतिपादितत्वात । यत्त नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं केवलज्ञानोत्पत्तः प्राक काम्य-निषिद्धानुष्ठानपरिहारेण ज्ञानावरणादिदुरितक्षयनिमित्तत्वेन केवलज्ञानप्राप्तिहेतुत्वेन च प्रतिपादितम्' तदिष्टमेवाऽस्माकम् । केवलज्ञानलाभोत्तरकालं तु शैलेश्यवस्थायामशेषकर्म निर्जरणरूपायां सर्वक्रियाप्रतिषेध एवाभ्युपगम्यत इति न तन्निमित्तो धर्माधर्म
यदि उपभोग करने जायेगा तो अतिप्रचुर नये कर्मों के संयोग का संचय हो जाने को आपत्ति होगी, जिनका कभी क्षय ही सम्भव नहीं रहेगा । तदुपरांत, उस अनुमान में प्रयुक्त कर्मत्व हेतु सन्तानत्वहेतु की तरह असिद्धि आदि अनेक दोषों से दुष्ट होने से कर्मक्षय में उपभोगजन्यत्व की सिद्धि नहीं कर सकता । असिद्धि आदि दोषों का उद्भावन सन्तानत्व हेतु के दूषणों के अनुसार अध्येता स्वयं कर सकता है, यहाँ ग्रन्थगौरवभय से उनका पुनरावर्तन नहीं किया जाता है ।
[ रागादि के विना उपभोग का असंभव ] यह जो कहा था (५९७-१)-समाधि के बल से उत्पन्न तत्वज्ञानवाला मनुष्य अनेक शरीर द्वारा उपभोग कर लेता है....इत्यादि, वह ठीक नहीं है, क्योंकि स्त्रीआदि का उपभोग अभिलाषात्मक रागादि के विना सम्भव हो नहीं है। यदि तत्त्वज्ञानी को भी अनेक कायव्यूह द्वारा स्त्री आदि भोग का सम्भव मानेंगे तो उसे गृद्धि (तीव्रमूर्छा) की अवश्यमेव उत्पत्ति होगी और योगी होने पर भी गृद्धिवाले को आपके मतानुसार अतिप्रचुरधर्माधर्म के बन्ध का भी सम्भव है जैसे कि अत्यन्तभोगमग्न राजादि को। इच्छा न होने पर भी वैद्य के परामर्श से रोगी की औषधग्रहण में प्रवृत्ति का आपने जो दृष्टान्त दिखाया है वह भी संगत नहीं होता क्योंकि वहाँ औषधग्रहण की इच्छा न होने पर भी प्रवृत्ति रोग विनाश की इच्छा से तो होती ही है अत: सर्वथा वीतरागता वहाँ भी असिद्ध है । मुक्ति सुख के अभिलाष से प्रवृत्ति करने वाले मुमुक्षु में आपने जो सरागता का आपादन किया है वह ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान को रोकने वाले राग का अभाव उसमें मानना ही पड़ेगा, अन्यथा किसी भी मुमुक्ष में सर्वज्ञता का आविर्भाव ही नहीं घटेगा-यह तथ्य सर्वज्ञसिद्धिप्रकरण में सिद्ध किया हुआ है । मुमुक्षु जब सर्वज्ञ हो जाता है उसके बाद जो भवोपग्राहि कर्म शेष रहते हैं उन से यद्यपि वागप्रवृत्ति, बुद्धिपूर्वक शरीर के आरम्भ ( = संचालन) रूप प्रवृत्ति होती है किन्तु उससे सातावेदनीय के अलावा और किसी कर्म का बन्ध नहीं होता, जब भवोपनाही कर्म भी अत्यन्तनाशाभिमुख हो जाते हैं तब शैलेशी (मुक्ति के निकट काल की एक) अवस्था में सातावेदनीय कर्म का बन्ध भी रुक जाता है-और भवोपग्राहीकर्ममूलक वचनादि प्रवृत्ति भी रुक जाती है। जब प्रवृत्ति भी रुक गयो तब उसके कारणरूप से माने गये सुखाभिलाष भी वहाँ नहीं रहता तो फिर मुमुक्षु में सरागता
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