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________________ ६३२ सम्मतिप्रकरण- नयकाण्ड-१ फलप्रादुर्भावः, प्रवृत्तिनिवृत्तेरात्यन्तिक्यास्तत्क्षयहेतुत्वसिद्धः । यच्चोक्तम् 'विपर्ययज्ञानध्वंसादिक्रमेण विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्त्यभ्युपगमे न तत्वज्ञानकार्यत्वादनित्यत्वं वाच्यम्' इत्यादि, तदप्ययुक्तम्, विशेषगुणच्छेदविशिष्टात्मनो मुक्तिरूपतया प्रतिषिद्धत्वात् , बुद्ध यादेः विशेषगुणत्वस्यात्यन्तिकतत्क्षयस्य च प्रमाणबाधितत्वात् । गुणव्यतिरिक्तस्य गुणिन प्रात्मलक्षणस्यकान्तनित्यस्य निषेत्स्यमानत्वात् तस्य बुद्ध यादिविशेषगुणतादात्म्याभावोऽसिद्धः । यच्च 'मोक्षावस्थायां चैतन्यस्याप्युच्छेदान्न कृतबुद्ध यस्तत्र प्रवर्तन्ते इत्यानन्दरूपात्मस्वरूप एव मोक्षोऽभ्युपगन्तव्यः' इति, एतत् सत्यमेव । यच्च 'यथा तस्य चित्स्वभावता नित्या तथा परमानन्दस्वभावताऽपि' इत्यादि, तदयुक्तम् , चित्स्वभावताया अप्येकान्तनित्यतानभ्युपगमात् , अात्मस्वरूपता तु चिद्रूपताया आनन्दरूपतायाश्च कथंचिदभ्युपगम्यत एव । यच्च अनन्यत्वेन श्रुतौ श्रवणम् 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इति, तदपि नास्मदभ्युपगमबाधकम् , समस्तज्ञेयव्यापिनो ज्ञानस्याऽवैषयिकस्य चानन्दस्य स्वसंविदितस्य मुक्त्यवस्थायां सकलकर्मरहितात्मब्रह्मरूपाभेदेन कथंचिदभीष्टत्वात् । की आपत्ति कैसे रहगी ? ! आपके मत में भी प्रवृत्ति के अभाव में भावि में धर्माधर्म की उत्पत्ति रुक जाने की बात प्रसिद्ध ही है । जो भावि धर्माधर्म को आपत्ति को रोक देता है वही संचित धर्माधर्म का भी नाशक मानना युक्त है यह तो पहले ही कह दिया है। [सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्ष का हेतु है ] उपभोग से सर्वकर्मनाश की बात अयुक्त होने से ही हमारे मत में तो सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनसम्यग्चारित्र इस त्रिपुटी को ही मुक्ति का अवन्ध्य कारण कहा गया है, अन्य किसी (उपभोगादि) को नहीं, क्योंकि उक्त त्रिपुटीरूप हेतु से ही भूत-भाविसकलकर्म सबन्ध का प्रतिघात होता है। यही कारण है कि आपने जो तत्त्वज्ञान से तत्त्वज्ञानीयों के कर्मों का विनाश कहा है वह कुछ ठीक है। किन्तु, दूसरे के कर्मों का विनाश उपभोग से होने का जो कहा है वह अयुक्त है क्योंकि हमने यह बता दिया है कि उपभोग से सकल कर्मों का नाश अशक्य है। तथा, 'नित्यनैमित्तिकैरेव"....इत्यादि तीन कारिकाओं से यह जो आपने कहा है कि- केवलज्ञान की उत्पत्ति न हो तब तक नित्यकर्म और नमित्तिक कर्म का अनुष्ठान काम्य कर्म और निषिद्ध कर्मों का त्याग कराने द्वारा ज्ञानावरणादि पाप कर्मों के क्षय का निमित्त बनता है और केवलज्ञान की उत्पत्ति में हेतु बनता है- यह कथन हमारे लिये इष्ट ही है। केवलज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद तो सर्वकर्मविधटन क्रियास्वरूप शैलेशी अवस्था में हम क्रिया (प्रवृत्ति) मात्र का अभाव ही मानते हैं इसलिये क्रियामूलक धर्माधर्म की फलोत्पत्ति रुक जाती है । 'प्रवृत्ति से आत्यन्तिक निवृत्ति' रूप हेतु से सकल कर्मों का क्षय होता है यह तो सिद्ध ही है। यह जो आपने कहा है-विपरीतज्ञानध्वंसादि क्रम से आविर्भूत विशेष गुणोच्छेदविशिष्ट आत्मस्वरूप को मुक्तिरूप मानने में, तत्त्वज्ञान का कार्य होने से अनित्यत्व को आपत्ति जो पहले विशेषगुणध्वंसरूप मुक्ति मानने में लग सकती थी वह नहीं लगेगी....इत्यादि, [ ५९७-१४ ] वह तो अयूक्त ही है क्योंकि पहली बात तो यह है कि मुक्ति विशेष गुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूप है ही नहीं, दूसरी बात यह है कि बुद्ध चादि गुण में विशेषगुणत्व प्रमाण से बाधित है, और तीसरी बात यह है कि बुद्ध यादि गुणों का आत्यन्तिक ध्वंस भी प्रमाण से बाधित है । तदुपरांत, गुणों से सर्वथा भिन्न और एकान्तत: नित्य ऐसा आत्मस्वरूप मान्य नहीं हो सकता-यह आगे कहा जायेगा, तदनुसार आत्मा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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