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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
यच्चोपभोगादशेषकर्मक्षयेऽनुमानमुपन्यस्तम् , तत्र यदेवाऽऽगामिकर्मप्रतिबन्धे समर्थं सम्यग्ज्ञानादि तदेव सश्चितक्षयेऽपि परिकल्पयितुयुक्तमिति प्रतिपादितं सर्वसाधनप्रस्तावे। उपभोगात्तु प्रक्षये स्तोकमात्रस्य कर्मणः प्रचुरतरकर्मसंयोगसंचयोपपत्तेर्न तदशेषक्षयो युक्तिसंगतः। 'फर्मत्वात' इति च हेतुः सन्तानत्ववदसिद्धाधनेकदोषदुष्टत्वात् न प्रकृतसाध्यसाधकः । प्रसिद्धत्वादिदोषोद्भावनं च सन्तानत्वहेतुदूषणानुसारेण स्वयमेव वाच्यं न पुनरुच्यते ग्रन्थगौरवभयात् ।
यच्च 'समाधिबलादुत्पन्नतत्त्वज्ञानस्य' इत्यादि, तदप्ययुक्तम् ; अभिलाषरूपरागाद्यभावे स्त्र्याउपभोगाऽसम्भवाद, सम्भवेऽपि चावश्यम्भावी ऋ( ? ग)द्धिमतो भवदभिप्रायेण योगिनोऽपि प्रचुरतरधर्माऽधर्मसम्भवोऽतिभोगिन इव नृपत्यादेः । वैद्योपदेशप्रवर्त्तमानातुरदृष्टान्तोऽप्यसंगतः, तस्यापि निरुग्भावाभिलाषेण प्रवर्त्तमानस्यौषधाद्याचरणे वीतरागत्वाऽसिद्धेः । न च मुमुक्षोरपि मुक्तिसुखाभिलाषेण
[उपभोग से सर्वकर्मक्षय अशक्य ] यह जो कहा था-'जिनके फलप्रदान का आरम्भ हो गया है ऐसे धर्म और अधर्म का क्षय फलोपभोग से होता है और सुषुप्तदशावाले संचित धर्माधर्म का क्षय होता है तत्त्वज्ञान से....'[ ५९५-१५ ] इत्यादि वह भी असंगत कहा है। कारण, उपभोग से यद्यपि उस कर्म का क्षय हो जायेगा, किन्तु उपभोग काल में 'साभिलाष मन-वचन और काया की प्रवृत्ति' स्वरूप नूतनकर्मबन्ध का निमित्त विद्यमान होने से, समर्थकारणमूलक अतिप्रचुर कर्म का भी सद्भाव रहेगा ही, तब आत्यन्तिक यानी अपुनर्भावरूप से कर्मों का क्षय कैसे होगा? तात्पर्य, उपभोग से कर्मक्षय नहीं घट सकता। हमारे मत से, पापक्रियानिवृत्तिस्वरूप चारित्र से आश्लिष्ट सम्यग्ज्ञान, मिथ्याज्ञान की क्रमश: निवृत्ति इत्यादि द्वारा पून: नये कर्म की उत्पत्ति को रोकने में जैसे समर्थ होता है वैसे पूर्व संचित कर्म के क्षय में भी समर्थ होने की पूरी सम्भावना है। उदा० उष्णस्पर्श भाविशीतस्पर्श की उत्पत्ति को रोकने में जैसे समर्थ होता है वैसे पूर्वोत्पन्नशीतस्पर्श के ध्वंस में भी समर्थ होता ही है । इतना विशेष ज्ञातव्य है कि परिणामिजीवाजोवादिवस्तुसंबन्धिज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है, एकान्तनित्यअनित्य आत्मादि सम्बन्धि ज्ञान सम्यग्ज्ञानरूप नहीं है, क्योंकि विपरीतार्थग्राहो होने से उस ज्ञान में मिथ्यात्व ही ठीक बैटता है । एकान्तवादीकल्पित आत्मादि अर्थ किसी भी तरह घटता नहीं-इस तथ्य का हम आगे यथास्थान निवेदन करेंगे । नैयायिकादि विद्वान भी मिथ्याज्ञान को मुक्ति का हेतु नहीं मानते हैं । ऊपर जो हमने चारित्र से आश्लिष्टसम्यग्ज्ञान से कर्मक्षय होने का कहा है उससे यह समझना चाहिये कि चौदहवे गुणस्थानक में होने वाले सर्वसंवररूप चारित्र से आश्लिष्ट सम्यग्ज्ञान यह ऐसा अग्नि है जिसमें सकल कर्मों को दग्ध करने का सामर्थ्य होता है । तात्पर्य, "अग्नि जैसे इन्धन को भस्मसात् कर देता है वैसे हे अर्जुन ! ज्ञानाग्नि भी सर्वकर्मों को भस्मसात् कर देता है" ऐसा जो आपने कहा था वह सिद्ध का ही साधन है। ( उसमें नया कुछ नहीं है )।
[सम्यग्ज्ञान से संचितकर्मक्षय की युक्तता ] उपभोग से ही सकल कर्मनाश की सिद्धि में आपने जो अनुमानोपन्यास किया है [ ५६६-३ ] उसके प्रति हमारा निवेदन यह है कि भावि कर्मब-ध को रोकने में समर्थ जो सम्यग्ज्ञान है उसी को संचितकर्मों के विनाश का हेतु मानना ठीक है, सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण में हमने इस बात का प्रतिपादन किया हुआ है । उपभोग से ही सकलकर्मों का क्षय मानना युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि अल्पकर्म वाला भी
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