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सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १
तेन यदुक्तम्- 'यस्मात् तदात्मनो
'गुणा अपि दूरदेशभाविनि तदंगनांगेऽन्तराले चोपलभ्यन्ते तस्मात् सिद्धं तस्य सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वम्, अतः 'सर्वगत आत्मा सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वात् आकाशवत्' इत्यनुमानबाधिता तदात्मस्वशरीरमात्रप्रतिज्ञा' इति, तन्निरस्तम्, सर्वेषां सर्वगतात्मप्रसाधन कहेतुनां पूर्वमेव निरस्तत्वात् । अतो न स्वदेहमात्रव्यापकात्मप्रसाधक हेतोरसिद्धिः । नाप्यनुमानेन तत्पक्षबाधा । न च तद्देहव्यापकत्वेनैवोपलभ्यमानगुणोऽपि तदात्मा सर्वगतो निजदेहैक देशवृत्तिर्वा स्याद अविरोधात् संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिको हेतुः इति युक्तम् ; वाय्वादावपि तथाभावप्रसंगतः प्रतिनियत देश सम्बद्धपदार्थव्यवहारोच्छेदप्रसवतेः । तथाहि यद्यथा प्रतिभाति तथैव सद्व्यवहारपथमवतरति यथा प्रतिनियतदेशकालाकारतया प्रतिभासमानो घटादिकोऽर्थः, अन्यथा प्रतिभासमाननियत देशकालाकार स्पर्शविशेषगुणोऽपि वायुः सर्वगतः स्यात् । न चात्र प्रत्यक्षबाधः, परेण तस्य परोक्षवोपवर्णनात् ।
यह भी प्रश्न है कि 'देवदत्त सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह वक्ता है' इस प्रकार विशेषणरहित ही वक्तृत्व तु का जैसे नास्तिक की ओर से प्रयोग किया जाता है वैसे यहाँ भी आप विशेषण के विना ही हेतुप्रयोग करें तो दोष क्या है ? - 'अरे ! कहा तो है कि काल - ईश्वरादि में व्यभिचार होगा' हाँ कहा तो है किन्तु वह ठीक नहीं है क्योंकि कालादि तो नित्यस्वभाववाले है अतः वे तो किसी के भी उपकारक नहीं हो सकते ।
तदुपरांत, शत्रुशरीर के प्रध्वंस का अभाव उसके प्रतिपक्षीयों के लिये कुछ न कुछ उपकारक कर्त्ता होता है तो वह ध्वंसाभाव भी प्रतिपक्षीयों के गुणनिमित्तक मानना पड़ेगा । यदि वैसा मानेगे तो विशेषणयुक्त हेतु वहाँ रहता न होने से हेतु भागाऽसिद्ध हो जायेगा क्योंकि अभावनित्य होने से वहाँ कार्यत्व (विशेषण) रहता नहीं है । यदि उक्त ध्वंसाभाव को देवदत्तगुणनिमित्तक नहीं मानेगे तो अग्निज्वलनादि को भी उसी तरह देवदत्तगुणपूर्वकत्व के विना ही देवदत्त के प्रति उपकारक मान लिया जायेगा । अतः अग्निज्वलनादि के बल से देवदत्त के गुण की सिद्धि निरवकाश हो जायेगी ।
[ आहार कवल के दृष्टान्त में साध्यशून्यता ]
तथा, आपने जो आहारकवल का दृष्टान्त दिया है उसमें जो देवदत्तगुणपूर्वकत्व आप सिद्ध मानते हैं वहाँ देवदत्तात्मा के कौन से गुण को हेतु मानगे ? यदि धर्मादि को, तो वह भी सिद्ध करना होगा क्योंकि उसमें विवाद है । अगर, प्रयत्न को हेतु मानेंगे तो वह स्वरूपासिद्ध है इसलिये उसका सम्भव नहीं है । जैसे देखिये- शरीरादि अवयवों में आविष्ट आत्मप्रदेशों के स्पन्दन को प्रयत्न रूप नहीं माना जा सकता क्योंकि स्पन्दन तो चलनक्रियारूप होने से गुणरूप नहीं है । यदि चलनक्रिया को गुणरूप मानेंगे तो गमनादि क्रिया भी गुणरूप ही मानी जायेगी । फलतः कर्म ( = क्रिया) जैसा कहीं भी कोई पदार्थ ही नहीं रहेगा । उसके फलस्वरूप, द्रव्य का जो 'क्रियावत्त्व' लक्षण किया गया है वह अयुक्त हो जायेगा । यदि कहें कि 'आत्मा निष्क्रिय होने से उसमें कर्म जैसे किसी भी पदार्थ का सद्भाव न हो इसमें इष्टापत्ति -तो यहां प्रश्न है कि आत्मा में निष्क्रियत्व कैसे सिद्ध हुआ ? यदि अमूर्त होने से, तो यह बात प्रत्यक्षबाधित है, क्योंकि सभी लोगों को प्रत्यक्ष से यह अनुभव होता है कि 'हम एक देश से दूसरे देश में जाते-आते है' । देखिये, यह व्यवहार भी होता है कि 'मैं आज सीर्फ एक योजन ही गया हूँ' । ऐसा नहीं कह सकते कि 'यहाँ गमनक्रिया की प्रतीति का विषय आत्मा नहीं किन्तु
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