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________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभूत्वे उत्तरपक्ष: ५९१ यदि च स्वदेहैकदेशस्थितः, कथं तत्र सर्वत्र सुखादिगुणोपलब्धिः ? इतरथा सर्वत्रोपलभ्यमानगुणोऽपि वायुरेकपरमाणुमात्रः स्यात् । न च क्रमेण सर्वदेहभ्रमणात् तस्य तथा तत्रोपलब्धिः , युगपत् तत्र सर्वत्र सुखादेर्गुणस्योपलम्भात् । न चाशुवृत्तेयौंगपद्याभिमानः, अन्यत्रापि तथाप्रसक्तेः, शक्यं हि वक्तु घटादिरप्येकावयववृत्तिः आशुवृत्तेयुगपत् सर्वेष्ववयवेषु प्रतीयत इति । अत एव सौगतोऽपि तत्रैक *निरंशं ज्ञानं कल्पयनिरस्तः, प्रत्यवयवमनेकसुखादिकल्पने सन्तानान्तरवत् परस्परमसंक्रमात अनुस्यूतकप्रतीतिविलोपः 'सर्वत्र शरीरे मम सुखम्' इति । अथ युगपद्भाविभिरेकशरीरत्तिभिरनेकनिरंशक्षणिक सुखसंवेदनरेकपरामर्शविकल्पजननादयमदोषः । असदेतत् , अनेकोपादानस्य परामर्शविक. ल्पस्यकत्वसम्भवे चार्वाकाभिमतैकशरीरव्यपदेशभागनेकपरमाणपादानानेकविज्ञानाभावेऽपि तद्विकल्पसम्भवात् । ततो यदुक्तं धर्मकीत्तिना तं प्रति-"अनेकपरमाणपादानमनेकं चेद् विज्ञानं सन्तानान्तरवदेकपरामर्शाभावः' [ ] इति, तत्तस्य न सुभाषितं स्यात् । मन या शरीर है' क्योंकि मन या शरीर 'अहं' इस प्रतीति का विषय नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि आहार कवल के दृष्टान्त में देवदत्तगुणपूर्वकत्व रूप साध्य गायब है। [आत्मा के गुण देह से अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते ] उपरोक्त रीति से जव देवदत्त गणपूर्वकत्व ही कहीं सिद्ध नहीं हो सकता तो आपने जो पहले यह कहा था कि जब देवदत्तात्मा के गुण भी दूरदेशवर्ती उसकी पत्नी के अंगदेश में और बीच में भी उपलब्ध होते हैं तो इससे यह सिद्ध होगा कि उसके गुण सर्वत्र उपलब्ध है । फलत: 'आत्मा सर्वगत (व्यापक) है क्योंकि उसके गुण सर्वत्रोपलब्ध हैं, उदा० आकाश” इस अनुमान से, देवदत्तात्मा उसके देहमात्र में व्यापक होने की प्रतिज्ञा बाधित हो जाती है .. इत्यादि, यह सब इसलिये निरस्त हो जाता है कि सर्वगत आत्मा के साधक सभी हेतुओं का पहले ही निरसन किया जा चुका है । इसलिये अब अपने देह मात्र में आत्म-व्यापकता के साधक हेतु में असिद्धि दोष नहीं हो सकता । अनुमान से भी देहव्यापकता वाले पक्ष में कोई बाधा प्रसक्त नहीं है । यदि यह कहा जाय कि-'देवदत्त आत्मा के गुण सीर्फ देवदत्त के देह में ही व्यापक भाव से उपलब्ध भले होते हो, फिर भी 'वह सर्वगत हो सकता है अथवा देह के किसी एक अवयव में ही संकुचित होकर रहने वाला हो सकता है' ऐसी शंका को अवकाश है, क्योंकि सीर्फ देह में ही व्या पक के उपलम्भ को सर्वगतत्व के साथ अथवा 'संकुचितवत्तित्व' के साथ विरोध नहीं है। इस प्रकार विपक्षरूप से संदिग्ध आत्मा में से हेतु की व्यावत्ति भी संदिग्ध हो जाने से देहमात्र व्यापकत्व साधक हेतु अनैकान्तिक हो जाता है"- तो यह ठीक नहीं है। कारण, वायु आदि अन्य पदार्थों में भी इस प्रकार की शंका के प्रसंग से पदार्थों के विषय में यह अमुकदेश से ही सम्बद्ध है' इत्यादि व्यवहारों का उच्छेद हो जायेगा। जैसे देखिये-जो जैसे प्रतीत होता है वह उसी रूप से सत् व्यवहार का विषय होता है । जैसे-अमुक ही देश-काल और आकार के रूप में भासमान घटादि अर्थ का उसी देश-काल और आकार के रूप में व्यवहार होता है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो, वायु का स्पर्शविशेष गुण नियत देश-काल-आकार से भासमान होने पर भी उसको सर्वदेशव्यापक मानने की आपत्ति होगी। *उपा० यशोविजयविरचिते घायालोके [ पृ० ४७.०२ ] 'निरंशं' इत्यस्य स्थाने 'निरंतर' इति पाठः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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