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________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः ५८९ स्वाभावसाधने वागादिवन्निविशेषणस्यैव तस्याभिधाने को दोषः ? 'व्यभिचारः कालेश्वरादिना' इति चेत् ? न, नित्यकस्वभावात् कस्यचिदुपकाराभावात् । अपि च, शत्रुशरीरप्रध्वंसाभावस्तद्विपक्षस्योपकारको भवति सोऽपि तद्गुणनिमित्तः स्यात् । तदभ्युपगमे वा तत्र कार्यत्वाऽसम्भवेन सविशेषणस्य हेतोरवर्तनाद् भागाऽसिद्धो हेतुः । अतद्गुणनिमित्तत्वे तस्यान्यदप्यतद्गुणपूर्वकं तदुपकारकं तद्वदेव स्यादिति न तद्गुणसिद्धिः । ___ यत पुन: 'ग्रासादिवत्' इति निदर्शनम् , तत्र यदि तदात्मगुणो धर्मादिहेतुः, साध्यवत्प्रसंगः । प्रयत्नश्चेत् ? न, तत्स्वरूपाऽसिद्धेः-शरीराद्यवयवप्रविष्टानामात्मप्रदेशानां परिस्पन्दस्य चलनलक्षणक्रियारूपत्वान्न गुणत्यम् , तत्त्वे वा गमनादेरपि तत्त्वात् न कर्मपदार्थसद्भावः क्वचिदपीति न युक्त 'क्रियावत्' इति द्रव्यलक्षणम् । 'निष्क्रियस्यात्मनो न स' इति चेत् ? कुतस्तस्य निष्क्रियत्वम् ? अमूतत्वात् इति चेत् ? प्रत्यक्षनिराकृतमेतत्-प्रत्यक्षेण हि देशाद्देशान्तरं गच्छन्तमात्मानमनुभवति लोकः । तथा च व्यवहारः-'अहमद्य योजनमात्रं गतः । न च मनः शरीरं वा तद्वयवहारविषयः, तस्याहंप्रत्ययवेद्यत्वात् । तदेवं परस्य साध्यविकलं निदर्शनमिति स्थितम् । रीति से निषेध सिद्ध होता है अतः इस निषेध साधक अनुमान से पूर्वपक्षी का यह अनुमान कि-अग्नि. आदि का ऊर्ध्वज्वलनादि देवदत्त के गुण से निष्पन्न है'-बाधित हो जाता है। [देहमात्रव्यापी अत्मसाधक अनुमान में बाध दोष का निरसन ] तथा, आपने जो यह कहा है कि-अग्नि आदि के उर्ध्वज्वलन से, अग्निदेश में अनुमित होने वाले देवदत्त के गुण से गुणवान् आत्मा का भी अनुमान से उस देश में अस्तित्व सिद्ध होता है अतः आपका स्वदेहमात्रव्यापक आत्मा रूप कर्म का निर्देश आत्मव्यापकता साधक अनुमान से बाधित हो जायेगा, उसके बाधित होने के बाद आपने जो पहले हेतु का प्रयोग किया है-'क्योंकि देवदत्तदेह में ही व्यापकरूप से उसकी आत्मा का उपलम्भ होता है'-यह हेतुप्रयोग कालात्ययापदिष्ट हो जायेगा [ १४७-४ ]-यह सब अब निरस्त हो जाता है। क्योंकि अग्निदेश में देवदत्तात्मा का सद्भाव असिद्ध है। __ दूसरी बात, अग्निज्वलन में देवदत्तणजन्यत्वसिद्धि के लिये "क्योंकि कार्य होते हुए देवदत्त के प्रति उपकारक है" ऐसा जो हेतुप्रयोग किया है वहाँ प्रश्न है कि 'कार्य होते हुए' ऐसा विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है ? विशेषण तो क्वचित् सम्भव और क्वचित् व्यभिचार इन दोनों के होने पर लगाया जाय तभी सार्थक होता है । तो क्या आपने देवदत्तगुणजन्यत्व के विरह में कहीं भी देवदत्त के प्रति उपकारकत्व देखा है जिससे व्यभिचार की शंका पडे और उसके वारण के लिये 'कार्यत्वे सति' ऐसा कहना पडे ? यदि कहें कि-काल और ईश्वरादि में देवदत्त के प्रति उपकारकत्व दिखता है और देवदत्तगुणजन्यत्व कालादि में नहीं है अतः व्यभिचार होता है, उसके वारण के लिये 'कार्य होते हुए' ऐसा कहा है, कालादि कार्यात्मक नहीं है, अतः पूरा सविशेषण हेतु कालादि में न रहने से व्यभिचार नहीं होगा ।-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि काल-ईश्वरादि देवदत्तगुणपूर्वक न होने पर भी यदि देवदत्त के उपकारी बनेंगे तो यत्किचित् कार्य (अग्निज्वलनादि) भी देवदत्तगुणजन्य न होने पर भी देवदत्त के उपकारी बन सकते हैं। अर्थात् अग्निज्वलनादि में हेतु के रहने पर भी साध्य न होने की शंका होने पर हेतु में विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध हो जाने से हेतु अनेकान्तिक हो जायेगा। तथा For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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