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प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः
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न च धर्माधर्मयोनिरूपत्वात बौद्धदृष्ट्या ज्ञानस्य च स्वग्रहणात्मकत्वादसिद्धो हेतरिति वक्तव्यम् , तयोः स्वरूपग्रहणात्मकत्वे सुखादाविव विवादाभावप्रसक्तेः । अस्ति चासौ अनुमानोपन्या. सान्यथानुपपत्तेस्तत्र । न च लौकिक-परीक्षकयोः 'प्रत्यक्ष कर्म' इति व्यवहारसिद्धम् । न चाऽविकल्पबोधविषयत्वात स्वग्रहणात्मकत्वेऽपि तयोविवादः क्षणिकत्वादिवत् , तथाऽनिश्चयात् तद्विषयेऽतिप्रसंगात् । तथाहि-अविकल्पाध्यक्ष विषयं जगत् जन्तुमात्रस्य तथाऽनिश्चयस्तु क्षणिकत्ववत् निर्विकल्पाध्यक्षविषयत्वात् । न च मूषिकालर्कविषविकारवत् तदनन्तरं तत्फलाऽदर्शनात् न तदर्शनव्यवहार: इति, स्वसत्ता. समये स्वकार्यजननसामर्थ्य तस्य तदैव तत्कार्यमिति तदनन्तरं तत्फलाऽदर्शनान्न तद्दर्शनव्यवहार इति । स्वसत्तासमये स्वकार्यजननसामध्यें तस्य सदैव तत्कार्यमिति तदनन्तरं तदृष्टिप्रसक्तेः अन्यदातु स एव नास्तीति कुतस्ततस्तस्य भावः ?!
है क्योंकि अवेतन हैं, उदा० शब्द । यहाँ सुखादि में साध्यद्रोह नहीं कहा जा सकता क्योंकि सुख अचेतन न होने से हेतु ही वहाँ नहीं रहता है । अचेतनत्वविरुद्ध स्वसंवेदनमयचैतन्य से ही सुख व्याप्त है । जब इष्ट वस्तु को प्राप्ति होती है उसी समय स्वसंवेदनमय आह्लादस्वरूप सुख का अनुभव सभी को होता है । यदि सुख-दुःख को स्वतः संवेदनमय नहीं मानेंगे तो सुखादि का अनुभव ही नहीं होगा, यदि अन्य संवेदन से उसका अनुभव मानेंगे तो उस अन्य संवेदन के लिये अन्य अन्य संवेदन की कल्पना करने का अन्त नही आयेगा, अर्थात अनवस्था दोष लगेगा। उपरांत, सुख का अनुभव यदि अन्य ज्ञान से मानगे तो उसमें परलोक तल्यता यानी परोक्षता की आपत्ति भी आयेगी-यह तथ्य
। पक्षिता को आपत्ति भी आयेगी-यह तथ्य पहले ही सिद्ध किया गया है
धर्माधर्म में अचेतनत्व हेतु असिद्ध भी नहीं है, अनुमान से सिद्ध है । देखिये-धर्म-अधर्म अचेतन है क्योंकि स्वसंविदित नहीं है, उदा० कुम्भ । जो लोग बुद्धि को असंविदित मानते हैं किन्तु चेतन मानते हैं वे बुद्धि में हेतु को साध्यद्रोही दिखाना चाहे तो उसके सामने बुद्धि स्वसंविदितत्व की सिद्धि इस प्रकार है-बुद्धि स्वग्रहणात्मक ही है क्योंकि वह अर्थग्रहणस्वरूप है। हेतु यहाँ व्यतिरेकी है इसलिये घट दृष्टान्त है । व्यतिरेक व्याप्ति इस प्रकार है-जो स्वग्रहणात्मक नहीं होता वह अर्थग्रहणस्वरूप भी नहीं होता जैसे घट ।- इस प्रकार धर्म-अधर्म में अचेतनत्व हेतु से आत्मगुणत्व का निषेध सिद्ध होता है।
[धर्माधर्म स्वसंविदित ज्ञानरूप नहीं है] यदि यह कहा जाय-धर्म और अधर्म ज्ञानरूप ही है, तथा बौद्धदृष्टि से ज्ञान स्वग्रहणस्वरूप ही है अत: आपने उन में अचेतनत्वसिद्धि के लिये जो अस्वसंविदितत्व हेतु का प्रयोग किया वह असिद्ध हो गया-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि धर्म और अधर्म यदि स्वसंविदित होता तो उसके होने-न होने में किसी को विवाद न होता जैसे कि सुख दु ख के अस्तित्व में किसी को भी विवाद नहीं है । धर्म और अधर्म के बारे में तो विवाद है ही, अन्यथा उसकी सिद्धि के लिये नास्तिकादि के समक्ष अनुमान का उपन्यास नहीं करना पड़ता । 'कर्म (धर्म-अधर्म ) प्रत्यक्ष है' यह बात न तो लोक व्यवहार में सिद्ध है, न तो परीक्षक विद्वान लोगों के व्यवहार में सिद्ध है। यदि यह कहें कि धर्म-अधर्म स्वग्रहणात्म तो है ही, फिर भी उसमें विवाद होने का कारण यह है कि वे निर्विकल्प ज्ञान के विषय हैं । स विकल्पज्ञान के विषय होते तो विवाद न होता । जैसेः क्षणिकत्व बौद्धमत से निविकल्पज्ञान का विषय होता है अत: प्रत्यक्षसिद्ध ही है किन्तु क्षणिकत्व विषय का सविकल्प ज्ञान नहीं होता इसलिये यह विवाद होता है
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