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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
ननु केऽत्र देवदत्तात्मगुणा ये तदंगनांगे तदन्तराले च प्रतीयन्ते ? यदि ज्ञान दर्शन-सुख-वीर्यस्वभावाः- सहत्तिनो गुरगाः' इति वचनात-इति पक्षः, स न युक्तः, ज्ञान-दर्शन-सुखानि संवेनदरूपाणि न तदंगनांगजन्मनि व्याप्रियमाणानि प्रतीयन्ते, नापि सत्तामात्रेण तद्देशे प्रतीतिगोचराणि । वीर्य तु शक्तिः क्रियानमेया. साऽपि तदेह एवानमीयते. तत्रैव तल्लिगमतपरिस्पन्ददर्शनात । तस्याश्चतगना देहनिष्पत्तौ देवदत्तस्य भार्या दुहिता स्यात। ततस्तज्ज्ञानादेस्तदेह एव तत्कायंजननविमुखस्य प्रतीते: प्रत्यक्षतः तद्बाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टः 'कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात्' इति हेतुः।
अथ धर्माधमौ तदंगनादिकार्यनिमित्तं तदगणः । तदयुक्तम् , न धर्माधमौ तदात्मनो गणौ, अचेतनत्वात शब्दादिवत् । न सुखादिना व्यभिचारः, तत्र हेतोरवर्तनात्-तद्विरद्धेन स्वसंवेदनलक्षणचैतन्येन तस्य व्याप्तत्वात् अभिमतपदार्थसम्बन्धसमय एवं स्वसंवेदनरूपालादस्वभावस्य तदात्मनोऽनु. भवात, अन्यथा सुखादः स्वयमननुभवात अनवस्थादोषप्रसंगात प्रन्यज्ञानेनाप्यनुभवे सुखस्य परलोकप्रख्यताप्रसक्तिः । प्रसाधितं चैतत् प्राक् । न चाऽसिद्धता 'अचेतनत्वात्' इति हेतोः। तथाहि-अचेतनौ तौ अस्वसंविदितत्वात् , कुम्भवत् । न बुद्धयाऽस्य व्यभिचार: अस्या: स्वसंवेदनसाधनात् । 'स्वग्रहणात्मिका बुद्धिः, अर्थग्रहणात्मकत्वात् , यत् स्वग्रहणात्मकं न भवति न तद् अर्थग्रहणात्मकम् , यथा घटः' इति व्यतिरेकी हेतुः। से बाधित हो गयी। अनुमानबाधित साध्यनिर्देश के बाद में प्रयुक्त हेतु-'देवदत्त के देहात्र मे नपूर्णतया उसके आत्मा के गुणों की उपलब्धि होती है' यह हेतु कालात्ययापदिष्ट हो गया ।
[ देवदत्त के गुणों की अन्यत्र सत्ता असिद्ध-उत्तरपक्ष ] कुछ वादी लोक के उक्त अनुमान के समक्ष यह प्रश्न है कि ऐसे कौन से देवदत्तात्मा के गुण हैं जो उसकी पत्नी के अंग में और मध्यवर्ती भाग में आपको प्रतीत होते हैं ? "जो सहवर्ती धर्म हो वे गुण" इस उक्ति के आधार पर यदि आप ज्ञान-दर्शन-सुख और वीर्य स्वभाव इत्यादि देवदत्त के गुणों की अन्यत्र उपलब्धि मानेगे तो वह युक्त नहीं है । कारण, देवदत्त की पत्नी के देह को उत्पत्ति में, देवदत्त के ज्ञान-दर्शन-सुखस्वरूपसंवेदनात्मकगुणों का कुछ भी व्यापार प्रतीत नहीं होता है। वहाँ उनका कुछ व्यापार भले न हो किन्तु वहाँ उनकी मक सत्ता है ऐसा भी कहों दृष्टिगोचर नहीं हुआ। वीर्य जो है वह संवेदनात्मक नहीं किन्तु शक्तिस्वरूप है, तज्जन्यक्रियारूप कार्यात्मक लिंग से उसका अनुमान होता है, यह परिस्पादात्मक लिंग भूत क्रिया का दर्शन सिर्फ देवदत्तात्मा में ही होता है अतः तजनक शक्ति भी सिर्फ उसके देह मात्र में ही अनुमान से सिद्ध होती है। यदि देवदत्त को शक्ति से देवदत्त पत्नी के शरीर की उत्पत्ति मानेगे तो वह देवदत्त पत्नी देवदत्तपुत्री बन जायेगी। क्योंकि उसके देव का जनक देवदत्त है। निष्कर्ष, देवदत्तपत्नी के देह के उत्पादन में उदासीन देवदत्तात्मा के ज्ञानादि गुणों की सिर्फ देवदत्तदेहदेश में ही प्रत्यक्ष से प्रतीति होती है, इस प्रतीति से प्रतिवादी का साध्यनिदंश बाधित हो जाने के बाद उनकी ओर से प्रतिपादित 'क्योंकि कार्यभूत है और देवदत्त का उपकारी है' यह हेतु कालात्ययापदिष्ट सिद्ध हुआ।
[धर्माधम आत्मा के गुण नहीं है ] यदि देवदत्त के धर्म-अधर्म गुण को उसकी पत्नी के अंग का निमित्त कारण मानते हो तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि धर्माधर्म (जैन मत के अनुसार द्रव्य रूप है अत:) वे देवदत्तात्मा के गुण नहीं
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