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प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः
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अत्र केचिद् हेतोरसिद्धतामुद्भावयन्तः ‘शरीरान्तरेऽपि तदंगनासम्बन्धिनि तद्गुणा उपलभ्यन्ते' इत्यभिदधति । तथाहि-देवदत्तांगनांगं देवदत्तगुणपूर्वकम् , कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात, ग्रासादिवत् । कार्यदेशे च सन्निहितं कारणं तज्जनने व्याप्रियतेऽन्यथातिप्रसंगादिति तदगनांगप्रादुर्भावदेशे तत्कारणतगणसिद्धिः । तथा, तदन्तराले च प्रतीयन्ते । तथाहि-अग्नेरूद्धज्वलनम् , वायोस्तिर्यक पवनं तद्गुणपूर्वकम् , कार्यत्वे सति तदुपकारकत्वात् , वस्त्रादिवत् । यत्र च तद्गुणास्तत्र, तद्गुण्यप्यनुमोयते इति स्वदेह एव देवदत्तात्मा' इति प्रतिज्ञा अनुमानबाधिता । ततोऽनुमानबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टो हेतः।
अनुपमसुखवाले स्थान में पहुंचे हुए नहीं कह सकते, अर्थात् वह पुराना प्रश्न तो तदवस्थ हो रहा । गराये मत में दोषों का उद्भावन कर देने मात्रा से अपना मत सिद्ध नहीं हो जाता। वह तभी हो सकता यदि पगये मत के साधक हेतु में विरोध का उद्भावन किया जाता, जिससे कि अपने मत की भी अनायास सिद्धि हो। [तात्पर्य यह है कि दूसरे के हेतु में इस प्रकार विरोधी युक्ति को दिखाना चाहिये जिससे दूसरे के मत से विपरीत ही पक्ष की यानी अपने ही पक्ष की पुष्टि हो । आपने तो ऐसे कोई विरोध का प्रदर्शन किया नहीं है ।'']
किन्तु यह बात अयुक्त है क्योंकि आत्मा में अविभूत्वसाधक प्रमाण का अभाव असिद्ध है। जैसे देखिये-देवदत्त की आत्मा देवदत्त के देहमात्र में ही व्यापक है, क्योंकि देवदत्त देह में ही संपूर्णतया उसके गुण उपलब्ध होते हैं। जिसके गुण संपूर्णतया जिस देश में उपलब्ध होते हैं वह उतने में ही ध्यापक होता है, उदा० देवदत्त के गृह में संपूर्णतया उपलब्ध होने वाले भास्वरतादि गुणों वाला दीपक। देवदत्त की आत्मा के गुण भी संपूर्णतया देवदत्त के शरीर देश में ही उपलब्ध होते हैं अतः वह देहमात्रव्यापक सिद्ध होता है । देवदत्त को आत्मा के ज्ञानादि गुणों की उपलब्धि देवदत्तदेहदेश में ही होती है, यज्ञदत्तादि के देहदेश में अथवा उन दोनों के मध्यवर्ती देश में नहीं होती है ।-यही अनुमान प्रमाण आत्मा में अविभुत्व को सिद्ध करता है।
[हेतु में असिद्धता का उद्भवन-पूर्वपक्ष ] कुछ वादी लोक यहाँ हमारे अनुमान के हेतु में असिद्धि को उद्भावना करते हुए कहते हैं-देवदत्त की पत्नी के देहदेश में देवदत्त के गुणों की उपलब्धि होती है। यह अनुमान देखिये-देवदत्त की पत्नी का देह देवदत्तगुणमूलक है क्योंकि वह कार्यभूत है और देवदत्त का उपकारी है, उदा० आहार का कवलादि । अब यह नियम है कि 'कार्यदेश में संनिहित कारण ही कार्य के उत्पादन में कुछ करता है', यदि इस नियम को नहीं मानेगे तो पर्वतीय अग्नि से भी घर में रसोईपाक हो जाने का अतिप्रसंग आयेगा । अत: इस नियम को मानना पड़ेगा। उससे यह सिद्ध होगा कि देवदत्त की पत्नी के जन्मदेश में भी उसके कारणीभूत देवदत के गुण (अदृष्टादि) संनिहित हैं। गुण निराधार तो रह नहीं सकता अत: वहाँ देवदत के आत्मा का विस्तार भी मानना पड़ेगा।
उपरांत, मध्यवर्ती भाग में भी देवदत्त के गुणों की उपलब्धि होती है। वह इस प्रकार:अग्नि का ऊर्ध्वज्वलन और वायु की तिरछो गति देवदत्तगुणमूलक है, क्योंकि वह कार्य है और देवदत्त के उपकारी है, उदा० वस्त्रादि । जहाँ देवदत्त के गुण हो वहां उसके गुणी आत्मा की सत्ता भी अनूमानसिद्ध है । अत: 'देवदत्त की आत्मा सिर्फ उसके देह में ही व्यापक है' यह प्रतिज्ञा उपरोक्त अनुमान
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