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________________ सम्मतिप्रकरण नयकाण्ड १ __ अपि च, आत्मनः स्वदेहमात्रध्यापकत्वेन सुख-दुखादिपर्याक्रान्तस्य स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वाद तद्विभुत्वसाधकस्य हेतोरध्यक्षबाधितपक्षानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्ट त्वम् । अन्यस्य च 'अहम्' इत्यध्यक्षसिद्धस्य प्रमाणाऽविषयत्वेनाऽसत्त्वादाश्रयाऽसिद्धो हेतुरिति । अनया दिशाऽन्येऽपि तद्विभुत्वसाधनायोपन्यस्यमाना हेतवो निराकर्तव्याः, अस्थ निराकरणप्रकारस्य सर्वेषु तत्साधकहेतुषु समान त्वात् । तन्नात्मनः कुतश्चिद्विभुत्वसिद्धिः ।। अथापि स्यात् यथाऽस्माकं तद्विभुत्वसाधक प्रमाणं न संभवति तथा भवतामपि तदविभुत्वसाधकप्रमारणाभाव इति नानुपमसुखस्थानोपगतिस्तेषां सिद्धति तदवस्थं चोद्यम्, न हि परपक्ष दोषो भावनमात्रतः स्वपक्षाः सिद्धिमुपगच्छन्ति अन्यत्र स्वपक्षसाधकत्वलक्षणपरप्रयुक्त हेतुविरुद्ध तोद्भावनात्, न चासौ भवता प्रदर्शितेति । न सम्यगेतत् , तदभावाऽसिद्धेः । तथाहि देवदत्तात्मा 'देवदत्तशरीरमात्र व्यापकः, तत्रैव व्याप्त्योपलभ्यमानगुणत्वात , यो यत्रव व्याप्त्योपलभ्यभानगुणः स तन्मात्रध्यापकः, यथा देवदत्तस्य गृह एवं व्याप्त्योपलस्यमानभार वरत्वादिगुण: प्रदीपः, देवदत्तशरीर एवं व्याप्त्योपलभ्यमानगुणस्तदात्मा' इति । तदात्मनो हि ज्ञानादयो गुणास्ते च तदेहे एक व्याप्त्योपलभ्यन्ते, न परदेहे, नाप्यन्तराले। से आकाश में साध्य-साधनशून्य की सिद्धि करगे' ऐसा तो बोल ही नहीं सकते क्योंकि स्पष्ट ही यहां अन्योन्य पराधीनता हो जाने से इतरेतराश्रय दोष लगेगा। तदुपरांत हेतु में निम्नोक्त रीति में संदिग्ध अनैकान्तिकता दोष भी है-देखिये, आत्मा में अणपरिमाणाधिकरण व विशिष्ट नित्यद्रव्यात रहेगा और अविभुत्व भी रहेगा तो क्या बाध है, इस प्रकार आत्मा की ही विपक्ष में सम्भावना करेंगे तो उसमें हेतु तो रहेगा ही और विपक्षत्व को शका का निवारक काई बाधक प्रमाण हो नहीं है, फलतः विपक्ष से हेतु को व्यावृत्ति में संदेह हो जाने से विपक्षावृत्तित्व ही असिद्ध हो जाता है और हेतु संदिग्धव्यभिचारी हो जाता है। विपक्ष में हेतु का अदर्शन यह कोई वाधक प्रमाणरूप नहीं है। क्योंकि सभी को विपक्ष में हेतु का अदर्शन होने की बात तो असिद्ध है, और अपने को विपक्ष में हेतु का अदर्शन तो अनैकान्तिक भी हो सकता है यह पहले कहा ही है । [ देहमात्रव्यापक आत्मा स्वसंवेदनसिद्ध है ] तदुपरांत, सुखदुखादिविवों से आक्रान्त स्वदेहमात्र में व्यापक आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है, इसलिये आत्मा में विभुत्व की सिद्धि के लिये प्रयुक्त हेतु, प्रत्यक्षबाधित पक्ष के बाद प्रयुक्त होने से कालात्ययापदिष्ट हो जायेगा । तथा अध्यापक से भिन्नप्रकार का (व्यापक ) आत्मा 'अहम्' इस प्रकार के प्रत्यक्ष से सिद्ध हो यह बात प्रमाण की विषयभूत न होने से व्यापकात्मा असिद्ध है, अत: उसमें विभुत्वसाधक हेतु आश्रयासिद्धि दोष से दूषित हो जायेगा । विभुत्व की सिद्धि के लिये जितने भी हेतु कहे जाय उन सभी का उक्त दिशा से निराकरण हो सकता है, क्योंकि स्वरांवेदनप्रत्यक्षसिद्ध देहमात्रव्यापक आत्मा और तत्प्रयुक्त बाध और आश्रया सिद्धि दोषों का उक्त प्रकार, आत्म विभूत्वसाधक सभी हेतुओं में समान है । निष्कर्ष, किसो भी प्रकार से आत्मा में विभुत्व की सिद्धि अशक्य है । [ अविभुत्वसाधक प्रमाण का अभाव नहीं ] यदि ऐसा कहे कि-"हमारे पास विभत्व का साधक कोई प्रमाण नहीं है तो आपके पास अविभुत्व का साधक प्रमाण भी कहाँ है ? अविभुत्वसाधक प्रमाण के अभाव में जिन भगवान को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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