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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ई० आत्मविभूत्वे उ०पक्षः ५८१ यदपि 'विभरात्मा. प्रणपरिमाणानाधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वात, यद यद अणपरि. माणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यं तव तद् विभु यथाऽऽकाशम् , तथा चात्मा, तस्माद विभुः' इति । तदप्यसारम् , तन्नित्यत्वाऽसिद्धेहेंतोरसिद्धत्वात , अणुपरिमाणानधिकरणत्वस्य च विशेषणस्यात्मनो द्रव्यत्वासिद्धरसिद्धिः, तदसिद्धिश्च इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । तथाहि-प्रणुपरिमाणान्यगुणस्य गुणत्वे देनाधारस्य तस्याऽसम्भवादात्मनो गुणवत्त्वेन द्रव्यत्वसिद्धिः, तत्सिद्धौ च तदाश्रितत्वेनाणपरिमाणान्यगुणस्य गुणत्वसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । न चाकाशस्याप्यणपरिमाणानाधिरकणत्वे सति नित्यदव्यत्वं विभुत्वं च सिद्धमिति साध्य-साधनविकलो दृष्टान्तः । न चात्मदृष्टान्तबलाव तस्य तदुभयधर्मयोगित्वं सिद्धमिति वस्तुयुक्तम् , अत्रापोतरेतराश्रयदोषप्रसंगस्य व्यक्तत्वात । अपि च, अणुपरिमाणानधिकरणत्वे सति नित्यद्रव्यत्वं भविष्यति अविभुत्वं च, विपक्षे हेतोर्बाधकप्रमाणाऽसत्त्वेन ततो व्यावृत्त्यसिद्धेः संदिग्धानकान्तिकश्च हेतुः । न च विपक्षे हेतोरदर्शनं बाधकं प्रमाणम् , सर्वात्मसम्बन्धिनस्तस्याऽसिद्धाऽनैकान्तिकत्वप्रतिपादनात् । [विभुत्व के द्वारा आत्मा में महत् परिमाण की सिद्धि दुष्कर ] जब आत्मा में विभृत्व ही असिद्ध है तब किसी ने जो यह कहा है कि-विभु होने से आकाश महान् है और आत्मा भी विभू ही है अत: महान् है-यह कथन निरस्त हो जाता है। देखिये-सर्वमूर्त पदार्थों के साथ एक साथ सयुक्त होना' यही विभूत्व का अर्थ है किन्तु आत्मा में सकलमूर्त पदार्थों का एक साथ संयोग ही सिद्ध नहीं है। यदि कहें कि-आत्मा सकल मुत्तों के साथ संयुक्त है क्योंकि एकदेश में रहने वाले विशेषगुण ( ज्ञानादि ) का आधार है, उदा० आकाश, [ तथाविधविशेषगुण शब्द का आधार है ] इस अनुमान से आत्मा का विभुत्व भी सिद्ध हो जायेगा ।-तो यह भी गलत है क्योंकि शब्द में गुणत्व असिद्ध होने से एक देशवृत्तिविशेषगुण की आधारता रूप साधन भी आकाश में असिद्ध है । तथा सर्वमूर्त पदार्थों के संयोग की आधारतारूप साध्य भी उसमें असिद्ध है। इस प्रकार दृष्टान्त साध्य-साधन उभय शून्य है। यह भी नहीं कह सकते-आत्मा के दृष्टान्त से आकाश में साध्य-माधन उभयधर्मसम्बन्धिता को सिद्ध करेगे-यदि ऐसा मानेंगे तो इतरेतराश्रय दोषप्रसंग स्पष्ट हो लग जायेगा। [ आत्मविभुत्वसाधक पूर्वपक्षी के अनुमान की असारता ] यह जो अनुमान कहा जाता है-आत्मा विभु है क्योंकि वह अणुपरिमाण का अनधिकरणीभूत नित्य द्रव्य है, उदा० आकाश, आत्मा भी वैसा ही है अत: विभु ही है ।-यह अनुमान भी सारहीन है। कारण, आत्मा में नित्यत्व असिद्ध होने से हेतु ही असिद्ध है। उपरांत, अणुपरिमाणानधिकरणत्व विशेषण भी आत्मा में द्रव्यत्व ही सिद्ध न होने से असिद्ध है, द्रव्यत्व इसलिये सिद्ध नहीं कि यहाँ इतरेतराश्रय दोष लगता है। जैसे देखिये-अणुपरिमाण से अन्य आत्म गुणों में गुणत्व की सिद्धि की जाय तब निराधार गुणों की संभावना न होने से उनके आधारभूत आत्मा की गुणवान होने से द्रव्यरूप में सिद्धि होगी। आत्मा में द्रव्यत्व की सिद्धि होने पर आत्मा में आश्रितत्व के आधार पर अणुपरिमाणभिन्न गुणों में गुणत्व को सिद्धि होगी-इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष होने से आत्मा में अणुपरिमाणानधिकरणत्व विशेषण असिद्ध रहेगा । इसी प्रकार आकाश में भी अणुपरिमाणामधिकरणत्व और नित्यद्रव्यत्व असिद्ध है एवं विभुत्व भी असिद्ध है, अतः दृष्टान्त भी साध्य-साधन शून्य हो गया। 'आत्मा के दृष्टान्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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