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संयोगाश्रयत्वाच्च तदपि वायुनाऽभिघातदर्शनात् संयुक्ता एव हि पश्वादयो वायुनाऽन्येन वाऽभिहन्यमाना दृष्टाः तेन च तदभिघातः पांश्वादिवदेव देवदत्तं प्रत्यागच्छतः प्रतिकूलेन वायुना प्रतिनिवर्त्तनात् तदप्यन्यदिगवस्थितेन श्रवगात् । ननु गन्धादयो देवदत्तं प्रत्यागच्छन्तस्तेन निवर्त्यन्ते, न च तेषां तेन संयोगः निर्गुणत्वात् गुणत्वेन । न तद्वतो द्रव्यस्यैव तेन निवर्त्तनम् केवलानां तेषामागमन- प्रतिनिवर्त्तनाऽसम्भवात् निष्क्रियत्वेनोपगमात् । केवलागमन प्रतिनिवर्तन संभवे वा द्रव्याश्रितत्वतेषां गुणलक्षणं वाहन्येत । न चात्रापि तद्वतो निवर्त्तनम् श्राकाशत्या मूर्त्तत्व- सर्वगतत्वेन तदसंभवात् श्रन्यस्य चानभ्युपगमात् । तस्माच्छन्द एव तेन संयुज्यते साक्षादित्यभ्युपेयम् । गुरुत्वेन चाऽसंयोगे चक्रकमुक्तम् । न चाऽसंयुक्तस्यैव तेन निवर्त्तनम्, सर्वस्य निवर्त्तनप्रसंगात् । प्रतिक्षणं शब्दाच्छन्दोत्पत्तिः पूर्वमेव निरस्ता ।
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सम्मतिप्रकरण- नयकाण्ड - १
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अल्प है' ऐसी प्रतीति की अम्पत्ति होगी, तथा तीव्रवेग से बहने वाले अल्पपरिणाम गिरिनदी के जल में भी तीव्रता के योग से 'यह महान है' ऐसी प्रतीति की आपत्ति होगी । वास्तव में ऐसी प्रतीति होती नहीं है इससे फलित होता है कि अल्प- महान् प्रतीति मन्दता - तीव्रतामूलक नही है, किन्तु अल्पमहत्परिमाण मूलक है । ऐसा यदि नहीं मानेंगे तो घटादि में भी अल्प- महत् की प्रतीति को परिमाणमूलक नहीं मान सकेंगे । यदि कहें कि - ' द्रव्यात्मक होने के कारण घटादि में परिमाण का संभव निर्बाध होने से अल्पमहान्प्रतीति को परिमाणमूलक मान सकते हैं'- तो शब्द भी द्रव्यात्मक होने से उसमें होने वाली अल्प महत्प्रतीति को भी परिमाणमूलक ही मानी जाय, दोनों स्थल में और कोई विशेषता नहीं है । यदि कहें कि - शब्द में अल्प- महान् प्रतीति उसके कारण में रहे हुये अल्प- महत्परिमाण के उपचार से होती है अतः वास्तव नहीं है तो यह कथन उलझन की निपज है, घटादि के परिमाण में भी औपचारिकता की आपत्ति दूर नहीं है ।
दूसरे वादी कहते हैं - अश्व के वेग का पुरुष में उपचार करके पुरुष जा रहा है' ऐसी प्रतीति करते हैं उसी तरह व्यंजकवायुगत अल्प महत्त्व का शब्द में उपचार करने से शब्द में भी अल्प-महान शब्दप्रयोग किये जाते हैं । किन्तु यह भी असार है क्योंकि अपौरुषेयतानिराकरणप्रकरण में शब्द की अभिव्यक्ति का पक्ष भी निषिद्ध हो चुका है । निष्कर्ष :- घटादि की तरह शब्द में भी अल्प-महापरिमाण का योग पारमार्थिक सिद्ध होता है और उससे शब्द में गुणवत्ता की भी सिद्धि निर्बाध है ।
[ संयोग के आश्रयरूप में द्रव्यत्व की सिद्धि ]
' शब्द द्रव्य है क्योंकि संयोग का आश्रय है' इससे भी शब्द का द्रव्यत्व सिद्ध है । वायु के झोके से शब्द का अभिघात देखा जाता है अतः उसमें संयोगाश्रयता भी सिद्ध है । जैसे देखिने, वायु से या दूसरे किसी के संयोग से ही धूलिकण आदि का अभिघात होता हुआ दिखता है। धूलीकण के ही अभिघात की तरह वायु से शब्द का भी अभिवात होता है, यह इसलिये कि देवदत्त की ओर आने वाला शब्द भी प्रतिकूल वायु के वेग से दूसरी दिशा में चला जाता है, और उस दिशा में रहे हुए अन्य आदमी को वह सुनाई भी देता है ।
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यदि यह कहा जाय कि देवदत्त के प्रति आनेवाली पुष्पादि की सुगन्धि भी वायु के वेग स दूसरी दिशा में बह जाती है, किन्तु इतने मात्र से गन्धादि के साथ वायु का संयोग नहीं सिद्ध हो सकता, गन्धादि तो गुण है और वे निर्गुण होते हैं तो यह ठीक नहीं है, वायु के वेग से गन्ध दूसरी
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