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________________ प्रथमखण्ड-का० १-आत्मविभूत्वे उत्तरपक्ष: एकादिसंख्यासम्बन्धित्वाच्च गुणवत्वम , तदपि 'एकः शब्दः द्वौ शब्दौ बहवः शब्दाः' इति प्रत्ययदर्शनात् । न चाधारसंख्यायास्तत्रोपचारात तथा व्यपदेश इति वक्तु युक्तम् , आकाशस्याधारत्वाभ्युपगमात तस्य चैकत्वात 'एकः शब्दः' इति सर्वदा प्रत्ययप्रसंगाव । कारणमात्रस्य संख्योपचारे 'बहवः' इति प्रत्ययो स्यात् , तस्य बहुत्वात् । विषयसंख्योपचारे गगनाऽऽकाशव्योमशब्दा बहुव्यपदेशभाजो न स्युः, गगनादिलक्षणस्य विषयस्यैकत्वात् , पश्वादिलक्षणविषयस्य बहुत्वात् 'एको गोशब्दः' इति स्वप्नेऽपि प्रत्ययः व्यपदेशो वा न स्यात् । 'यथाऽविरोधं संख्योपचारः' इति बालजल्पितम् , स्वयं संख्यावत्यैवाऽविरोधात् । 'अत्रापि गुणत्वं विरुध्यते' इति न वक्तव्यम् , इष्टत्वात्। ततः कियावत्त्वाद् गुणव. त्वाच्च शब्दो द्रव्यम् , इत्यसिद्धं 'प्रतिषिध्यमानद्रव्यभावे' इति हेतुविशेषणम्।। दिशा में बह जाती है इसी से सिद्ध है कि गन्ध के आश्रयभूत द्रव्य का ही अन्य दिशा में प्रतिगमन होता है। गन्ध तो गुण है और गुण निष्क्रिय होता है अतः स्वतन्त्र रूप से उसका आगमन या अन्य दिशा में बहना संभव नहीं है । यदि स्वतंत्र रूप से गुणभूत गन्धादि का आगमन प्रतिगमन मानेगे तब तो वे द्रव्याश्रित भी नहीं हो सकते, फलतः गुण का जो लक्षण है द्रव्याश्रितत्व, उसका गन्धादि में भंग हो जायेगा। [ आश्रय की गति से शब्दगुण की गति अयुक्त ] यह नहीं कह सकते कि 'शब्दस्थल में द्रव्य का आश्रित हो कर ही शब्दात्मक गुण गमनागमन करता है' । कारण, शब्द का आश्रय आपके मत में आकाश है और वह तो अमूर्त एवं सर्वगत है इस लिये उसका गमनागमन संभव नहीं है और आकाश से अन्य कोई शब्द का आश्रय आप मानते नहीं है। अतः यही मानना होगा कि द्रव्यात्मक शब्द ही स्वयं वायु के साथ साक्षात् संयुक्त होता है। वह गुण है इसलिये उसमें संयोग का संभव नहीं है' ऐसा कहने में स्पष्ट ही चक्रक दोष लगता है यह पहले कह दिया है । 'वायु से संयुक्त हुए विना ही शब्द दूसरी दिशा में चला जाता है' ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि तब तो शब्दवत् अन्य अन्य द्रव्यों को भी वह संयोग के विना ही दूसरी दिशा में ले जा सकेगा। पल पल एक शब्द से दूसरे दूसरे शब्द की उत्पत्ति का पक्ष तो तीर के दृष्टान्त से पहले ही निरस्त हो चुका है। [संख्या के सम्बन्ध से शब्द में गुणवत्ता की सिद्धि ] शब्द गुणवान है क्योंकि एकत्व द्वित्वादि संख्या का सम्बन्धी है । 'शब्द एक है, दो हैं, बहत हैं" ऐसी प्रतीति से उसमें एकत्वादिसंख्या का भान होता है। ऐसा कहना कि 'अपने आश्रय की संख्या के उपचार से शब्द में ऐसा व्यवहार होता है'- उचित नहीं है क्योंकि शब्दगुणत्व पक्ष में उसका आधार एक ही आकाश है अतः द्वित्वादि के उपचार का तो संभव नहीं रहता, सदा के लिये 'शब्द एक है' ऐसा ही भान होता रहेगा । यदि कहें कि -'हम सिर्फ समवायिकारण का ही नहीं कारणमात्रगत संख्या का उपचार करेंगे'-तो फिर 'शब्द बहुत है' ऐसा ही भान हो सकेगा, 'एक है' ऐसा भान नहीं हो सकेगा कि कारण अनेक हैं । यदि कहें-'हम शब्द के अर्थभूत विषय की संख्या का उपचार करेंगेतो आपत्ति यह है कि गगन, आकाश, व्योमादि शब्दों का बहुवचनान्तप्रयोग नहीं हो सकेगा क्योंकि गगनादिशब्द का अर्थ एक ही व्यक्ति है, तथा दूसरा दोष यह होगा कि स्वप्न में भी 'गोशब्द एक है। ऐसा भान या व्यवहार नहीं हो सकेगा क्योंकि गोशब्द का विषय अनेक पशु है। यदि किसी भी रीति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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