________________
प्रथम खण्ड-का० १-आत्मविभुत्वे उत्तरपक्षः
कान्तः । न हि बिल्व-बदरादेरिव वायोरियताऽवधार्यते । 'वायोरप्रत्यक्षत्वात इयत्ता सत्यपि नावधार्यते, न शब्दस्य विपर्ययात्' । न, उक्तमत्र 'स्पर्शविशेषस्य वायुत्वात् , तस्य च प्रत्यक्षत्वात् इति । इयत्ता चेयं यदि परिमाणादन्या, कथमन्यस्यानवधारणेऽन्यस्याभावः ? न हि घटानवधारणे पटाभावो युक्तः । परिमाणं चेत् तहि 'इयत्तानवधारणात परिमाणं नास्ति' इति किमुक्तम् ', परिमाणं नास्ति परिमाणानवधारणात् । तस्मिन्नल्प-महत्त्वपरिमाणावधारणे कथं न तदवधारणम् ?, बिल्वादावपि तत्प्रसंगात् ।
मन्द-तीवाभिसम्बन्धावल्प-महत्त्व प्रत्ययसंभवे मन्दवाहिनि गंगानीरे 'अल्पमेतत्' इति प्रत्ययोत्पत्तिः, स्यात् , तोववाहिगिरिसरिन्नीरे महत् इति च प्रतीतिप्रसंगः । न चैवम् , तस्मान्न मन्दतीव्रतानिबन्धनोऽयं प्रत्यय अपि तु अल्पमहत्त्वपरिमाणनिमित्तः, अन्यथा घटादावपि तन्निबन्धनो न स्यात् । घटादीनां द्रव्यत्वेन तन्निबन्धनत्वे परिमाणसंभवात तत्प्रत्ययस्य, शब्दस्यापि तथाविधत्वेन स तथाविधोऽस्तु , विशेषाभावात् । कारणगतस्याल्पमहत्त्वपरिमाणस्य शब्दे उपचारात तथा संप्रत्यय इत्यपि वैलक्ष्यभाषितम् , घटादावपि तथाप्रसंगात् । अपरे मन्यन्ते-यथाऽश्वजवस्य पुरुष उपचारात 'पुरुषो याति' इति प्रत्ययस्तथा व्यञ्जकगतस्याल्प महत्वादेः शब्द उपचारात 'शब्दोऽल्पो महान' इति च व्यपदेशः-तदप्यसारम् , शब्दाभिव्यक्तेरपौरुषेयत्वनिराकरणे प्रतिषिद्धत्वात् । ततो घटादाविवाहपमहत्त्वपरिमारणसम्बन्धः पारमाथिकः शब्द इति सिद्धं गुणवत्त्वम् ।
[इयत्ता के अनबोध से परिमाण का निषेध अनुचित ] --"गुणत्व के आधार से हम अल्प-महत्त्वपरिमाण का अयोग नहीं दिखाते हैं जिससे कि आप का दिखाया चक्रक दोष लब्धप्रसर बने, किन्तु अन्य द्रव्यों में जैसे इयत्ता का अवबोध प्रसिद्ध है वैसा शब्द में न होने से कहते हैं।"-ऐसा कहना भी असंगत है--वायु में इयत्ता का अवधारण कहाँ होता है ? फिर भी उसमें अल्प-महत्परिमाण का योग माना जाता है अत. आप की बात में अनेकान्त दोष प्रसक्त है । बिल्व-बेर आदि में जैसे इयत्ता का अवबोध होता है वैसे वायू में कभी नहीं होता । यदि कहें कि-'वायु द्रव्य तो प्रत्यक्ष नहीं है अत: उसमें इयत्ता का अनवबोध प्रत्यक्षाभावमुलक है, शब्द में ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि वह प्रत्यक्ष है'-तो यह ठीक नहीं । पहले ही हम कह आये हैं कि are किसी द्रव्य का नहीं किन्तु स्पर्शविशेष का ही नाम है और वह स्पर्शात्मक वायू प्रत्यक्ष ही है। तथा यह सोचिये कि इयत्ता परिमाण से भिन्न है या परिमाणरूप ही है ? यदि भिन्न है तो दयना का अवबोध न होने पर इयत्ता का ही निषेध करना उचित है, परिमाण का निषेध कैसे ? घट का अवबोध न हो तो पट का निषेध करना उचित नहीं। यदि इयत्ता परिमाणरूप ही है तो 'इयत्ता का अवबोध न होने से परिमाण नहीं है' इस का अर्थ क्या होगा. यही तो, कि 'परिमाण का अवबोधन होने से परिमाण का ( शब्द में ) अभाव है', अब यह तो सोचिये कि जब अल्प-महत्परिमाण का शब्द में अवबोध अनुभवसिद्ध है तो फिर 'उसका अवबोध न होने से परिमाण नहीं है। ऐसा करना कहाँ तक उचित है ? बिल्वादि में भी फिर तो ऐसा कह सकेंगे कि परिमाण का अवबोध न होने से उन में भी परिमाण का अभाव है।
[अल्प-महान् प्रतीति तीव्रमन्दतामूलक नहीं ] आप के पूर्वकथनानुसार मंदत-तीव्रता के योग से 'अल्प है' 'महान् है' ऐसी प्रतीति का उपपादन किया जाय तो मंदवेग से बहने वाले विपुल गंगा नदी के जल में मंदता के योग से यह
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org