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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
णात , न हि अयं 'महान शब्दः' इत्यवस्यन् 'इयान्' इत्यवधारयति यथा द्रव्यान्तराणि बदराऽऽमलक.. बिल्वादीनि--इति वक्तु शक्यम् , यतो वक्तव्यमत्र का पुनरियं शब्दस्य मन्दता तीव्रता वा ? अवान्तरजातिविशेषः, कथम् ? "गुणवृत्तित्वात् शब्दत्ववत् । एतदेवोषतं भगवता परमषिणोलूक्येन "गुरणे भावाद् गुणत्वमुक्तम्" [ वैशे. १-२-१-१४ ] । अस्थायमर्थः-- यो यो गुणे वर्तते स स जातिविशेषः यथा गुणत्वामात ।"--असदेतत्-यतः कथं शब्दस्य गणत्वसिद्धियन तत्र वर्तमानत्वाज्जातिविशषत्वं मन्दत्वादे: ? अद्रव्यत्वादिति चेत? तदपि कथम अल्पमहत्त्वपरिमारणाऽसम्बन्धात सोऽपि गुणत्वात् । ननु तदेव पूर्वोक्तं चक्रक्रमेतत् ।।
'न गुणत्वात्तस्याल्प महत्त्वपरिमाणाऽसम्बन्धं ब्रमः येनायं दोषः स्यात . अपि तु द्रव्यान्तरवदियत्तानवधारणात्' इति चेत् ? न, वायोरि यत्तानवधारणेऽप्यल्प-महत्त्वपरिमाणसम्बन्धसम्भवादने.
ही हेतु मानते रहने में अन्त कहाँ होगा ? निष्कर्ष, अभिघात का हेतु स्पर्शवान् शब्द ही है और स्पर्शवत्त्व हेतु से ही शब्द में गुणवत्त्व की सिद्धि भी निर्बाध है।
[परिमाण से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि ] शब्द में अल्पपरिणाम और महत्परिमाण के सम्बन्ध से भी द्रव्य सिद्ध हो सकता है । 'यह शब्द अल्प है, यह महान है' (-अमुक व्यक्ति का घोष छोटा है अथवा मोटा है) ऐसी प्रतीति से अल्प और महत्परिमाण शब्द में सिद्ध होता है । यदि कहें-- 'यह इतना है' इस प्रकार इयत्ता का अवधारण द्रव्यों में जैसे होता है वैसा शब्द में नहीं होता है । अतः अल्प--महान् उल्लेख से सिर्फ शब्दगत मन्दता और तीव्रता का ही ग्रहण सिद्ध होता है, परिमाणगुण का नहीं । 'शब्द अणु है- अल्प है मन्द है' इस प्रकार शब्दगत मन्दत्वधर्म का ग्रहण होता है और 'शब्द बड़ा है, पटु है, तीव्र है'. इस प्रकार शब्दगत तीव्रता धर्म का ग्रहण होता है । अर्थात् परिमाण का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि 'शब्द इतना है' ऐसा अनुभव नहीं होता है । 'शब्द बड़ा है' ऐसा अनुभव करने वाला 'इतना है' ऐसा नहीं दिखाता
-बिल्व आदि अन्य द्रव्यों के लिए तो 'यह इतना बड़ा है' ऐसा प्रयोग सब लोग करते हैं। यह कथन भी न बोलने जैसा ही है। क्योंकि शब्द में मन्दता या तीव्रता परिमाणरूप नहीं है तो और क्या है यह तो कहिये। यदि अवान्तर जातिविशेषरूप है तो वह भी कैसे ? यदि यहाँ ऐसा उत्तर किया जाय कि--"मन्दता तीव्रता धर्म शब्दत्व को तरह गुण में रहते हैं अत: शब्दत्व के जैसे अवान्तर सामान्यरूप हैं । भगवान् उलूक महर्षि ने भी ऐसा कहा है कि- 'गुण में रहता है इसलिये गुणत्व को ( सामान्यात्मक ) कहा।' [ वैशे० १.२.१४ ]--इसका अर्थ ऐसा है--जो धर्म गुण में रहता है वह जातिविशेषरूप है, उदा० गुणत्व।"--किन्तु यह उत्तर गलत है, शब्द में गुणत्व ही कहाँ सिद्ध है जिसके दृष्टान्त से उसमें वर्तमान मन्दतादि धर्म को जातिवशेषरूप कहा जाय? यदि अल्प. महतपरिमाण का सम्बन्ध न होने से उसको गुण कहेंगे तो उस परिणाम के सम्बन्ध को भी गुणत्व के आधार से ही सिद्ध करना होगा, फलत: वही पूर्वोक्त चक्रक दोष आवत्तित होगा। के चन्द्रानन्दवृत्तौ 'गुणेषु गुणानामवृत्तेः गुणत्वं च गुणेषु वर्तते, तस्मान्न गुणः' इति व्याख्यातमिद सूत्रम् । उपस्कारकर्तृकवृत्तौ च गुणेष्वेव भावात्समवायात गुणत्वं द्रव्य गुण-कर्मभ्यो भिन्नं सत्तावदेवोक्तमित्यर्थः' इति व्याख्यातम् । जतात्पर्य यह है कि गुण या क्रिया में जो अखण्ड भावात्मक धर्म होता है वह द्रव्यादिरूप न घट सकने से परिशेषात्
जातिरूप माने जाते हैं यदि कोई बाध न हो।
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