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प्रथमखण्ड का ० १ - आत्म विभुत्वे पूर्वपक्ष:
अथ स्वयं न चेतन प्रात्मा अपि तु बुद्धिसम्बन्धाच्चेतयत इति, अत्राप्यचेतनस्वभाव परित्यागेऽनित्यता आत्मनोऽन्यबुद्धिकल्पना वैफल्यं च, स्वयमपि तत्सम्बन्धात् प्रागपि तथाविधस्वभावाऽविरोधात् । तत्सम्बन्धेऽपि तत्स्वभावाऽपरित्यागे 'ज्ञानसम्बन्धादात्मा चेतयते' इत्यपि विरुद्धमेव । अथ तत्समवायिकारणत्वात् चेतयते न स्वयं चेतनस्वभावोपादानादिति, तहि येन स्वभावेन पूर्वज्ञानं प्रति समवायिकारणमात्मा तेनैव यद्युत्तरं प्रति तथा सति पूवमेव तत्कायं ज्ञानं सकलं भवेत्, नह्यविकले कारणे सति कार्यानुत्पत्तिर्युक्ता तस्याऽतत्कार्यप्रसंगात् । अथ पूर्व सहकारिकारणाभावाद्न तत् कार्यम् । किं पुनः स्वयमसमर्थस्याकिचित्करेण सहकारिणा ? किंचित्करत्वेपि यदि तत् ततो भिन्नं क्रियते, प्रतिबन्धाऽसिद्धि: अनवस्था वा प्रभिन्नस्य करणेऽप्यात्मनः एव करणमिति कार्यता । कथंचिदभिन्नस्य करणे तद्बुद्धिरपि ततः कथंचिदभिन्नेति नैकान्तेन तस्याः क्षणिकता । तदेवं पक्ष हेतु दृष्टान्तदोषदुष्टत्वाद् नातोऽनुमानात् शब्दस्य क्षणिकत्वमिति सक्रियत्वं सिद्धम्, अतोऽपि द्रव्यत्वम् ।
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( ज्ञाता ) है तब तो जिस का क्षणिकत्व आप सिद्ध करना चाहते हैं उस आत्मभिन्न बुद्धि को मानने की जरूर ही क्या है ?
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[ बुद्धि के सम्बन्ध से आत्मचैतन्य की कल्पना अयुक्त ]
यदि कहें कि आत्मा स्वयं चेतन नहीं किन्तु बुद्धि के योग से उसमें चेतना आती है तो पूर्वकालीन अचेतन स्वभाव त्याग कर बुद्धियोग से चेतनम्वभाव धारण करने में आत्मा की अनित्यता प्रसक्त होगी, तथा आत्मा को भिन्न बुद्धि के योग से चेतनस्वभाव मानने के बदले बुद्धियोग के पूर्व स्वयं चेतनस्वभाव मानने में भी विरोध नहीं है अतः अन्य बुद्धि के योग की कल्पना भी व्यर्थ हो जायेगी । तथा, बुद्धि का योग होने पर यदि अचेतनस्वभाव का त्याग नहीं मानेंगे तो ज्ञान के सम्बन्ध से आत्मा में चेतन स्वभाव आने की बात भी विरोधग्रस्त हो जायेगी । चेतनस्वभाव को अचेतनस्वभाव के साथ स्पष्ट ही विरोध है ।
पूर्वपक्ष:- आत्मा बुद्धि के योग से स्वयं चेतनस्वभाव को धारण कर लेता है ऐसा हम नहीं कहते, किन्तु वह ज्ञान का समवायि कारण होने से चेतनावंत होता है यही कहना है ।
उत्तरपक्षी: --जिस स्वभाव से आत्मा पूर्वकालीन ज्ञान का समवायिकारण होता है, यदि उसी स्वभाव से वह उत्तरकालीन ज्ञान का भी समवायी कारण बनेगा तो, पूर्वकाल में उत्तरकालीन ज्ञान को समवायी कारणता का प्रयोजक स्वभाव अक्षुण्ण होने से, सकल उत्तरकालीन ज्ञानों की उत्पत्ति पूर्वकाल में ही प्रसक्त होगी । 'कारण यदि संपूर्ण हो तो कार्य उत्पन्न न होवे' यह बात नहीं घट सकती क्योंकि तब उन दोनों में एक दूसरे के प्रति कारण कार्य भाव का ही भंग हो जायेगा । [ सहकारियों से उपकार की बात असंगत ]
पूर्वपक्ष:-- पूर्वकाल में उत्तरकालीन ज्ञानों के प्रति समवायिकारणता का स्वभाव तदवस्थ होने पर भी उन की उत्पत्ति न होने का कारण यह है कि उस वक्त उन ज्ञानों के सहकारिकारण उपस्थित नहीं रहते है ।
उत्तरपक्षी:- यदि तथाविध स्वभाववाला आत्मा भी असमर्थ है तो फिर सहकारियों भी आ कर क्या करने वाले हैं ? यदि वे उपस्थित हो कर कुछ उपकार करते हैं ( जिससे आत्मा समर्थ होता है ) ऐसा कहेंगे तो वह उपकार आत्मा से भिन्न होगा या अभिन्न, यदि भिन्न होगा तो वह
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