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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ गुणवत्त्वाच्च द्रव्यं शब्द:--'गुणवान् ध्वनिः, स्पर्शवत्त्वात, यो यः स्पर्शवान् स स गुणवान् यथा लोष्टादिः, तथा च ध्वनिः, तस्माद् गुणवान्' इति । स्पर्शवत्त्वाभावे कंसपाध्यादिध्वानाभिसम्बन्धेन कर्णशष्कुल्याख्यस्य शरीरावयवस्याभिघातो न स्यात् , न ह्यस्पर्शवताऽऽकाशेनाभिसम्बन्धात तदभिघातो दृष्टः, भवति च तच्छब्दाभिसम्बन्धे तदभिघातः, तत्कार्यस्य बाधिर्यस्य प्रतीतेः । ननु स्पर्शवता शब्देन कर्णविवरं प्रविशता वायुनेव तद्वारलग्नतूलांशुकादेः प्रेरणं स्यात् । न, धमेनानेकान्तात-धमो हि स्पर्शवान् , तदभिसम्बन्धे पांशुसम्बन्धवच्चक्षुषोऽस्वास्थ्योपलब्धेः, न च तेन चक्षुष्प्रदेशं प्रविशता तत्पक्ष्ममात्रस्थापि प्रेरणमुपलभ्यते । न च स्पर्शवत्वे शब्दस्य वायोरिव प्रदेशान्तरेण ग्रहणप्रसंगः, धम. स्थापि चक्षुरादिप्रदेशव्यतिरिक्तशरीरप्रदेशेन ग्रहणप्रसक्तेः । 'धूमवत् चक्षुषा तस्य ग्रहणं स्थादिति चेत ? न, जलसंयुक्तेनानलेन व्यभिचारात तस्योष्णस्पर्शोपलं भेऽपि चक्षुषा भास्वररूपानुपलम्भात् । अनुदभूतत्वमुभयत्र समानम् । आत्मा का सम्बन्धी न हो सकेगा और सम्बन्धी बनने के लिये अन्य संबन्ध की कल्पना करंगे तो अन्य अन्य संबन्ध की कल्पना अविरत रहेगी। यदि आत्मा से अभिन्न उपकार को सहकारीगण करेगे तो इसका अर्थ हुआ कि आत्मा को ही वे करते हैं । फलतः आत्मा में कार्यता और तन्मूलक अनित्यता प्रसक्त होगी। यदि सहकारिगण आत्मा से कथंचिद् अभिन्न उपकार को करते हैं ऐसा कहेंगे तो उसके बदले यही कह दो कि कथंचिद् अभिन्न बुद्धि को ही करते हैं। फलत: आत्मा से कथंचिद् अभिन्न बुद्धि भी आत्मवत् नित्य होने से क्षणिक मानने की जरूर नहीं रहेगी। तो इस प्रकार शब्द में क्षणिकत्व की सिद्धि के लिये उपन्यस्त ज्ञान के दृष्टान्त में साध्यशून्यता फलित हुयी। इसका नतीजा यह है किपक्षदोष, हेतृदोष और दृष्टान्तदोष से दुष्ट अनुमान से शब्द में क्षणिकत्व की सिद्धि दुष्कर बन जाने से निष्क्रियता भी सिद्ध नहीं हो सकेगी। अतः सक्रियत्व हेतु सिद्ध होने से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि निर्बाध हो सकेगी। [शब्द में गुणहेतुक द्रव्यत्व की सिद्धि ] गुणवान होने से भी शब्द द्रव्यात्मक है उसका अनुमान इस प्रकार है-शब्द गुणवान है क्योंकि स्पर्शवाला है, जो भी स्पर्शवाला होता है वह गुणवान होता ही है जैसे कि मिट्टी का लौंदा। शब्द भी स्पर्शवाला ही है अत: वह गुणवान सिद्ध होता है। शब्द को यदि स्पर्शवाला नहीं मानेंगे तो देहावयवभूत कर्णशष्कुलो को कंसपात्री आदि के प्रचण्ड ध्वनि के सम्बन्ध से जो अभिघात होता है वह नहीं होगा। स्पर्शरहित है आकाशद्रव्य, तो उस के सम्बन्ध से किसी भी अंग को अभिघात होता हो ऐसा नहीं देखा जाता। जब कि शब्द के सम्बन्ध से तो अभिघात होने का स्पष्ट अनुभव है जिस के फलस्वरूप बधिरता महसूस होती है। पर्वपक्षीः-वायू जब किसी छिद्र में प्रवेश करता है तो छिद्र के मुख मे संलग्न तुल-अंशुकादि प्रेरित होकर वहाँ से हठ जाते हैं ऐसा दिखता है, यदि शब्द भी स्पर्शवान् द्रव्य है तो फिर वह जब कर्णछिद्र में प्रवेश करेगा तब कर्णमुख में रहे हुए तूलादि को भी प्रेरित करेगा ही, किन्तु वैसा कहाँ दिखता है ? [शब्द में स्पर्शवत्ता का समर्थन ] उत्तरपक्षी:-आपने कहा वैसा कोई नियम नहीं है क्योंकि धूम में ऐसा नहीं होता। धूम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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