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________________ ५५२ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ न चैवं बुद्धिक्षणिकत्ववादिनः क्वचित् कालान्तरावस्थायित्वं सिध्यति, तद्ग्रहणाभावात् । तथाहि पूर्व कालबुद्ध स्तदेव विनाशाद् नोत्तरकालेऽस्तित्वमिति न तेन तथा सांगत्यं कस्यचित् प्रतीयते, अतिप्रसंगात् । उत्तरबुद्धेश्व पूर्वमसंभवाद न पूर्वकालेन तत् तथापि प्रतीयते । 'उभपत्रात्मनः सद्भावात् ततस्तत्प्रतीतिरित्यपि नोत्तरम्, 'आकाशसद्भावात् तत्प्रतीतिरित्यस्यापि भावात् । 'तस्याऽचेतनत्वाद् 'ति चेत् स्वयं चेतनत्वे आत्मनः स येन स्वभावेन पूर्व रूपं प्रतिपद्यते न तेनोत्तरम्, न हि नीलस्य ग्रहणमेव पीतग्रहणम्, तयोरभेदप्रसंगात् । अथान्येन स्वभावेन पूर्वमवगच्छति, अन्येनोत्तरमिति मतिस्तथा सत्यनेकान्तसिद्धिः । स्वयं चात्मनश्चेतनत्वे किमन्यया बुद्धया यस्याः क्षणिक्त्वं साध्यते ? मानने वाले बौद्ध हैं और ऐसी एक क्षण से ही सर्व वस्तु को वह क्षणिक कहता है । जब कि हम तो छह समय तक अवस्थान के बाद नष्ट हो जाना इसको क्षणिकत्व कहते हैं । जैन:- जब आप अन्य द्वितीयादि क्षणों में रहने वाले पदार्थ में भी क्षणिकत्व का व्यवहार करते हैं तो फिर हजारों क्षण तक जीने वाले पदार्थ में भी क्षणिकत्व का व्यवहार क्यों नहीं करते ? ! तथा. आप यदि वस्तु की पूर्वपूर्वक्षण को सत्ता को उत्तरोत्तरक्षणसत्ता से भिन्न मानेंगे तब तो सत्ताभेद मूलक वस्तुभेद प्रसक्त होने से बौद्ध का क्षणिकत्व ही स्वीकार लिया। यदि उन सत्ताओं का अभेद मानेंगे तब भी उत्तरक्षण की सत्ता अभिन्न होने के नाते पूर्वपूर्वक्षण की सत्ता में समाहित हो जायेगी तो वस्तु की एकक्षणमात्र स्थिति ही प्रसिद्ध रहेगी - फिर बुद्धि में षट्क्षणस्थायित्व का संभव नहीं रहेगा। यदि कहें कि पूर्वपूर्व और उत्तरोत्तर सत्ता क्षणों में भेदाभेद है- तब तो अनायास ही अनेकान्तमत की सिद्धि हो जायेगी । तदुपरांत, षट् क्षण अवस्थिति के बाद यदि वस्तु का निरवशेष नाश मानेंगे तो ( अंतिम क्षण में अर्थक्रियाकारित्व के अभाव से सत्त्व असिद्ध हो जाने पर ) फलित यह होगा कि क्षणिकवाद में किसी भी कार्य का उद्भव संभव नहीं है । [ बुद्धिक्षणिकत्वपक्ष में कालान्तरावस्थान की अप्रसिद्धि ] तथा, बुद्धि को क्षणिक माननेवाले के मत में कहीं भी कालान्तरस्थायित्व सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि बुद्धि कालान्तरस्थायी न होने से अन्य वस्तुगत कालान्तरस्थायिता का ग्रहण ही शक्य नहीं है । जैसे देखिये- जो पूर्वकालीन बुद्धि है वह तो नष्ट हो जाने से उत्तरकाल में उसका अस्तित्व ही नहीं है, इस लिये उत्तरकाल के साथ किसी भी वस्तु को संगति = सम्बन्ध पूर्वकालीनबुद्धि से ज्ञात नहीं किया जा सकता । अन्यथा पूर्वकालबुद्धि में भावि सकल पदार्थों के प्रतिभास का अतिप्रसंग होगा । तथा, उत्तरकालीन बुद्धि का पूर्वकाल में अस्तित्व न होने से पूर्वकाल के साथ किसी भी वस्तु के सम्बन्ध का उससे ग्रहण नहीं हो सकता । यदि कहें कि आत्मा उभयकाल में है अतः वही पूर्वोत्तरकाल के साथ वस्तु के सम्बन्ध को जान पायेगा तो यह भी गलत उत्तर है क्योंकि वैसे तो आकाश भी उभयकाल में है तो वह भी क्यों नहीं जान पायेगा ? 'आकाश अचेतन होने से नहीं जान सकता है' ऐसा कहें तो यहाँ निवेदन है कि वह जिस स्वभाव से पूर्वरूप को जानता है उसो स्वभाव से तो उत्तर रूप को नहीं जान सकता क्योंकि नील का ग्रहण ही पीतग्रहणरूप तो नहीं हो सकता. अन्यथा उन दोनों का अभेद ही प्रसक्त होगा । यदि अन्य स्वभाव पूर्व रूप को जानता है और दूसरे ही स्वभाव से उत्तररूप को जानता है ऐसा मानेंगे तब तो अनायास ही अनेकान्तवाद सिद्ध हो जायेगा, क्योंकि स्वभावभेद से कथंचित् वस्तुभेद को मानना यही अनेकान्तवाद है । यदि आत्मा स्वयं चेतन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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