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________________ सम्मतिप्रकरण-काण्ड १ अथ A2 संवादित्वेन ज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वं विज्ञायते, एतदप्यचार, चक्रकप्रसंगस्यात्र पक्षे दुनिवारत्वात् । तथाहि, न यावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेद लक्षणो विशेषः सिद्धयति न तावत्तत्पूविका प्रवृत्तिः संवादाथिनां यावच्च न प्रवृत्तिर्न तावदर्थक्रियासंवादः, यावच्च न संवादो न तावद्विज्ञानस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वसिद्धिरिति चक्रकप्रसंग: प्रागेव * प्रतिपादितः । ___अथ A3 बाधारहितत्वेन विज्ञानस्य यथार्थपरिच्छेदत्वमध्यवसीयते, तदप्य सङ्गतम् , स्वाभ्युपगमविरोधात् । तदुभ्यपगमविरोधश्च बाधाविरहस्य तुच्छस्वभावस्य सत्वेन ज्ञापकत्वेन वाऽनङ्गीकरणात् । पर्युदासवृत्या तदन्यज्ञानलक्षणस्य तु विज्ञानपरिच्छेद विशेषाऽविषयत्वेन तद्वयवस्थापकत्वानुपपत्तेः। (A4) अथार्थतथात्वेन यथावस्थितार्थपरिच्छेद लक्षणो विशेषो विज्ञानस्य व्यवस्थाप्यते, सोऽपि न युक्तः, इतरेतराश्रयदोषप्रसंगात । तथाहि-सिद्धेऽर्थतथाभावे तद्विज्ञानस्यार्थतथाभावपरिच्छेदत्वसिद्धिः, तत्सिद्धेश्चार्थतथाभावसिद्धिरिति परिस्फूटमितरेतराश्रयत्वम् । तन्न कारणगुणापेक्षा प्रामाण्यज्ञप्तिः । (A2) अगर दूसरे विकल्प में ज्ञान संवादी होने के कारण तात्त्विक स्वरूप का प्रकाशक है ऐसा समझते हैं, तो यह भी युक्त नहीं है, क्योंकि इस पक्ष में चक्रक दोष की आपत्ति दुनिवार है। यह इस प्रकार-जब तक ज्ञान में वस्तु के यथार्थप्रकाशकत्वस्वरूप विशेष सिद्ध नहीं होता तब तक संवादाथिओं की यथार्थपरिच्छेदपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति नहीं हो सकती और जब तक प्रवृत्ति नहीं होती तब तक अर्थक्रिया मे अर्थात प्रमाण के द्वारा उत्पन्न होने वाले यथार्थपरिच्छेदरूप कार्य से संवाद नहीं हो सकता और जब तक संवाद नहीं होता तब तक ज्ञान में यथावस्थित अर्थप्रकाशकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती । इस रीति से चक्रक की आपत्ति पहले ही दी जा चुकी है। (43) अब यदि आप कहते हैं कि-बाध से रहित होने के कारण, ज्ञान का यथार्थपरिच्छेदत्व निश्चित होता है, तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि अपने मत के साथ विरोध होगा। विरोध इस प्रकार-आप बाधाभाव को तुच्छ मानते हैं, उसका न सत् रूप से स्वीकार करते हैं, न ज्ञापक रूप से । यदि आप बाधाभाव को पर्यंदास प्रतिषेधरूप मान कर अभाव रूप नहीं किन्तु सद्रप अर्थात् उससे भिन्न वस्तु के ज्ञानरूप मानते हैं तो इस प्रकार का बाधाभाव हो तो सकता है परन्तु वह ज्ञान के यथार्थ प्रकाशकत्व को विषय नहीं करता है. अर्थात बाधाभावज्ञान का विषय कोई भिन्न ही है. इसलिए वह ज्ञान के यथार्थप्रकाशकत्व के विषय में उदासीन होने से उसका व्यवस्थापक नहीं बन सकता (A4) यदि आप कहते हैं कि-'अर्थत थात्व यानी वस्तु के ज्ञानानुरूपस्वरूप से ही ज्ञान का यथावस्थितार्थपरिच्छेदरूप विशेष धर्म निश्चित होता है तो यह पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि इसमें अन्योन्याश्रय दोष को आपत्ति होगी। वह इस प्रकार-वस्तु का अर्थतथात्व सिद्ध हो जाय तो उस वस्तु का ज्ञान यथावस्थितार्थपरिच्छेदस्वरूप होने का सिद्ध होगा। और वस्तु का ज्ञान यथार्थपरिच्छेदस्वरूप होने का सिद्ध होने पर वस्तु के तथाभाव स्वरूप की सिद्धि होगी। इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट लगता है । इसलिये इन चार अवान्तर विकल्पों वाला आद्य पक्ष असिद्ध है, अर्थात् प्रामाण्य का निश्चय अपने कारणों के गुणों को अपेक्षा नहीं रखता है। ॐ द्रष्टव्य पृ.१८-२.५। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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