________________
प्रथम खण्ड-का० १प्रामाण्यवाद
[ (३) स्वतःप्रामाण्यज्ञप्तिसाधनम्-पूर्वपक्षः ] नापि प्रमाणं प्रामाण्यनिश्चयेऽन्यापेक्षम् । तदयपेक्षमाणं कि A स्वकारणगुणानपेक्षते, B आहोस्वित् संवादमिति विकल्पद्वयम् । A तत्र यदि स्वकारणगुणानपेक्षत इति पक्षः स्वीक्रियते, सोऽसङ्गतः, स्वकारणगुणानां प्रत्यक्षतत्पूर्वकानुमानाऽग्राह्यत्वेनाऽसत्त्वस्य प्रागेव प्रतिपादनात् । अथाऽभिधीयते. 'यो यः कार्यविशेषः स स गुणवत्कारणविशेषपूर्वको यथा प्रासादादिविशेषः, कार्यविशेषश्च यथावस्थितार्थपरिच्छेदः इति स्वभावहेतुरिति-एतदसम्बद्धं, परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वाऽसिद्धः ।
तथाहि-परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वं कि A1 शुद्धकारकजन्यत्वेन, A 2 उत संवादित्वेन, ग्राहोस्विद A 3 वाधारहितत्वेन, उतस्विद A4 अर्थतथात्वेनेति विकल्पाः। तत्र A1 यदि गुणवत्कारणजन्यत्वेनेति पक्षः, सन युक्तः, इतरेतराश्रयप्रसङ्गात् । तथाहि --गुणवत्कारणजन्यत्वेन परिच्छेदस्य यथावस्थितार्थपरिच्छेदत्वम्, तत्परिच्छेदत्वाच्च गुणवत्कारणजन्यत्वमिति परिस्फुटमितरेतराश्रयत्वम्। स्वतः है इसकी चर्चा हुई । अब प्रामाण्य की ज्ञप्ति भी स्वतः है अर्थात् परतः नहीं है-इसका विचार किया जाता है:
[(३) प्रामाण्य ज्ञप्ति में भी परतः नहीं है-पूर्वपक्ष ] प्रामाण्य के निश्चय के लिये भी प्रमाण अन्य किसी की अपेक्षा नहीं करता। यदि वह अपेक्षा करता है तो क्या [A] अपने कारणों के गुणों की अपेक्षा करता है ? अथवा [B] संवाद की अपेक्षा करता है ? A इनमें से यदि आप 'कारणों के गुणों की अपेक्षा करता है' इस पक्ष का स्वीकार करते हैं तो यह पक्ष असंगत है । क्योंकि हम पहले कह चुके हैं कि प्रमाण के कारणों के गुण न प्रत्यक्ष से प्रतीत हो सकते हैं और न प्रत्यक्षमूलक अनुमान से, इसलिये वे असत् हैं । अब यदि आप कहें-"जो जो विशेष कार्य होता है वह वह गुणवान कारण विशेष से उत्पन्न होता है, जैसे कोई विशिष्ट राजभवन, इसी प्रकार पदार्थ का यथार्थबोध भी कार्यविशेष है । इस प्रकार यहाँ स्वभाव हेतु अनुमान प्रयोजक होता है । जो जो कार्यविशेष है वह वह गुणवत्कारण निष्पन्न स्वभाव वाला होता है, तब प्रमाण यह कार्य विशेष होने से गुणवत्कारण निष्पन्न होना चाहिये ।"-तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि ज्ञान में यथावस्थितअर्थपरिच्छेदरूपता असिद्ध है।
[ज्ञान में यथावस्थितार्थपरिच्छेदरूपता की असिद्धि में चार विकल्प]
असिद्ध इस प्रकार:-ज्ञान में यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदरूपता किस आधार पर कहते हैं ? A (1) क्या ज्ञान शुद्ध यानी गुणवान् कारणों से उत्पन्न है इसलिये ? अथवा A (2) संवादी है इसलिये ? अथवा A (3) बाध से वजित है इसलिये ? अथवा A (4) पदार्थ का स्वरूप ज्ञानानुरूप है इसलिये ? ये चार विकल्प हो सकते हैं। इनमें से A (1) यदि पहले विकल्प में ज्ञान गुणवान कारणों से उत्पन्न होने के कारण यथार्थ प्रकाशक है यह पक्ष माना जाय तो इसमें अन्योन्याश्रय दोष की आपत्ति है, वह इस प्रकार:- ज्ञान गुणवान कारणों से उत्पन्न है यह सिद्ध होने पर ज्ञान वस्तु के यथार्थ स्वरूप का प्रकाशक है यह सिद्ध होगा और वस्तु के यथार्थस्वरूप का प्रकाशकत्व सिद्ध होने पर ज्ञान की गुणवान कारणों से उत्पत्ति सिद्ध होती है । इस प्रकार अन्योन्याश्रय स्पष्ट है।
ॐ द्रष्टव्य पृ० ८-पं. ३ ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org