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________________ प्रथमखण्ड-का० १- आत्मविभुत्वे पूर्वपक्ष: गुणो बुद्धि:, प्रतिषिध्यमानद्रव्य कर्मभावे सति सत्तासम्बन्धित्वात्, यो यः प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मभावे सति सत्तासम्बन्धी स स गुणः यथा रूपादि:, तथा च बुद्धिः तस्माद् गुणः । न च प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्वमसिद्धं बुद्धेः । तथाहि बुद्धिर्द्धव्यं न भवति, एकद्रव्यत्वात्, यद् यदेकद्रव्यं तत् तद् द्रव्यं न भवति यथा रूपादि, तथा च बुद्धि:, तस्माद् न द्रव्यम् । न चाऽयमसिद्धो हेतुः । तथाहि एकद्रव्या बुद्धिः, सामान्यविशेषवत्वे सत्ये केन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्, यद् यत् सामान्य विशेषवत्त्वे सत्ये केन्द्रिय प्रत्यक्षं तत् तद् एकद्रव्यम् यथा रूपादिः, तथा बुद्धि:, तस्मादेकद्रव्या । यह स्थान अनुपम सुख वाला है । 'उपगत' यहाँ 'उप' यानी सकल कर्मों का क्षय हो जाने पर किसी भी अन्तर के विना 'गत' यानी प्राप्त । 'प्राप्त' का तात्पर्य यह है कि शैलेशी अवस्था के अन्तिम समय में उपादेयभूत अनन्तसुखमय स्वभाव जो आत्मा से कथंचित् अभिन्न ही है - ऐसे स्वरूप को प्राप्त करने वाले । ५३३ | आत्मा सर्वव्यापी है - वैशेषिकपूर्वपक्ष ] यहाँ वैशेषिक पंडितों का कहना है कि आपकी यह पूरी बात असंगत है क्योंकि आत्मा विभु = सर्वव्यापी होने से किसी विशिष्टस्थान की ओर पहुंचाने वाली गति का सम्भव ही नहीं है । तथा कर्म क्षीण हो जाने के बाद देहादि के अभाव में मुक्तात्माओं में सुख के हेतुभूत असमवायिकारणात्मक निमित्त भी नहीं रहता अत: सुख की उत्पत्ति भी असंभव है । विषय निरपेक्ष नित्य सुख अप्रसिद्ध होने से असत् ही है । आत्मा की सर्वव्यापिता असिद्ध नहीं है - अनुमान से उसकी सिद्धि शक्य है । जैसे देखिये"बुद्धि का अधिकरण द्रव्य विभु=सर्वव्यापी है क्योंकि वह नित्य एवं अपने लोगों को उपलभ्यमान ( ज्ञायमान ) गुणों का अधिष्ठान है । जो जो नित्य एवं अपने लोगों को उपलभ्यमान गुणों का अधिष्ठान होता है वह विभु होता है, उदा० ( शब्दगुण का अधिष्ठान ) आकाश । बुद्धि का अधिकरण आत्मद्रव्य भी वैसा है, अतः वह विभु है ।" यदि कहें कि बुद्धि में गुणात्मकता असिद्ध है, अतः हेतु में प्रयुक्त 'गुण' विशेषण की असिद्धि से आप का हेतु भी असिद्ध हो गया - ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि बुद्धि में अनुमान से गुणरूपता सिद्ध है । जैसे देखिये [ बुद्धि में गुणात्मकता सिद्धि के लिये अनुमान ] "बुद्धि गुणात्मक है- क्योंकि उसमें द्रव्यत्व और कर्मत्व निषिद्ध होने के साथ सत्ता का सम्बन्ध भी है। जिसमें द्रव्यत्व- कर्मत्व के निषेध के साथ सत्तासम्बन्ध होता है वह गुण होता है, उदा० रूपरसादि । बुद्धि भी ऐसी ही है अतः गुणात्मक सिद्ध होती है ।" इस अनुमान में, बुद्धि में हेतु का विशेषण प्रतिषिध्यमानद्रव्यकर्मत्व असिद्ध नहीं है । वह इस प्रकार : - (१) 'बुद्धि द्रव्यरूप नहीं है, क्योंकि वह एक द्रव्य वाली है अर्थात् एक ही द्रव्य में रहने वाली है । जो भी एकद्रव्यवाला होता है वह द्रव्यरूप नहीं होता, उदा० रूप-रसादि, [ एक रूप या एक रस किसी एक ही द्रव्य में रहता है, अनेक द्रव्य में नहीं ] । बुद्धि भी एकद्रव्यवाली ही है । अतः वह द्रव्यरूप नहीं है ।” इस प्रयोग में भी हेतु असिद्ध नहीं है। वह इस प्रकार :- "बुद्धि एकद्रव्यवाली है, क्योंकि सामान्यविशेषवाली ( = अवान्तर सामान्यवाली) होती हुयी एक इन्द्रिय से प्रत्यक्ष है । जो सामान्यविशेष वाले होते हुए एक इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होते हैं वे एकद्रव्यवाले होते हैं जैसे रूप - रसादि, बुद्धि भी वैसी ही है अतः एकद्रव्य वाली सिद्ध होती है ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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