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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१
न च 'एकेन्द्रियप्रत्यक्षत्वात्' इत्युच्यमाने आत्मना व्यभिचार:, तस्येकैन्द्रियप्रत्यक्षत्वे विवादात । नापि वायुना, तत्रापि तत्प्रत्यक्षत्वस्य विवादास्पदत्वात् । तथापि रूपत्वादिवा . व्यभिचारः, तनिवृत्त्यर्थ 'सामान्य विशेषवत्वे सति' इति विशेषणोपादानम् । न च रूपस्यान्तःकरणग्राह्यतया द्वीन्द्रियग्राह्यता, चक्षुरिन्द्रियस्यैव 'चक्षुषा रूपं पश्यामि' इति व्यपदेशहेतोस्तत्र करणत्वसिद्धिः, मनसस्त्वान्तरार्थप्रतिपत्तावेवाऽसाधारणकरणत्वात् । अथवा, एकद्रव्या बुद्धिः सामान्य विशेषवत्त्वे अगुणवत्त्वे च सत्यचाक्षुषप्रत्यक्षत्वात् , शब्दवत् ।
तथा, न कर्म बुद्धिः, संयोग-विभागकारणत्वात् , यद् यत् संयोगविभागाकारणं तत् तत् कर्म न भवति, यथा रूपादि, तथा च बुद्धिः, तस्माद न कर्म । तस्मात् सिद्धः प्रतिषिध्यमानदव्यकर्मभावो बुद्धेः। न च सत्तासम्बन्धित्वमसिद्धं बुद्धेः, तत्र 'सत्' इति प्रत्ययोत्पादात् । न च सत्ता भिन्ना न सिद्धा, तद्धदप्रतिपादकप्रमाणसद्भावात् । तथाहि-यस्मिन् भिद्यमानेऽपि यन्न भिद्यते तत ततोऽर्थान्तरम् यथा भिद्यमाने वस्त्रादावभिद्यमानो देहः, भिद्यमाने च बुद्धयादौ न भिद्यते सत्ता. द्रव्यादौ सर्वत्र सत सत' इति प्रत्ययाभिधानदर्शनात् अन्यथा तदयोगात् । सा च बुद्धिसम्बद्धा, ततस्तत्र विशिष्टप्रत्ययप्रतीतेः । तथाहि-यतो यत्र विशिष्टप्रत्यय: स तेन सम्बद्धः यथा दण्डो देवदत्तेन, भवति च बुध्यादौ सत्तातस्तत्प्रत्ययः, ततस्तया संबद्धेति ।
[सामान्यविशेषवच विशेषण की सार्थकता) केवल 'एकेन्द्रियप्रत्यक्ष' इतना ही हेतु किया जाय तो आत्मा में हेतु है और साध्य एकद्रव्यता तो नहीं है अतः हेतू साध्यद्रोही हुआ ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि-'आत्मा एक इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय है' इसीमें विवाद है । वायु मे भी हेतु साध्यद्रोही नहीं है क्योंकि उस में भी आत्मा को तरह प्रत्यक्ष होने से विवाद है । हाँ रूपत्वादि में हेतु साध्यद्रोही हो सकता है क्योंकि वह एकमात्र नेत्रेन्द्रियप्रत्यक्ष है किन्तु एक ही द्रव्य में रहने वाला नहीं, अनेकद्रव्य में रहता है-अत: इसके वारण के लिये विशेषण किया है 'सामान्यविशेषवाला' । इस विशेषण के लगाने से हेतु रूपत्वादि में साध्यद्रोही नहीं बनेगा क्योंकि रूपत्वादि में कोई अवान्तर सामान्य रहता ही नहीं। यह भी नहीं कह सकते कि-'रूपत्व में तो नेत्रग्राह्यता की तरह मनोग्राह्यता भी रहती है अत: एकेन्द्रियग्रा हेत वहाँ नहीं रहेगा तो उक्त विशेषण लगाने की क्या जरूरत?'-जरूरत यह है कि 'मैं नेत्र से रूप को देखता हूँ' इस व्यवहार के बीजभूत नेत्रेन्द्रिय में ही चाक्षुषप्रत्यक्ष करणत्व की सिद्धि होती है अतः, उसमें मन करणरूप न होने से रूप को इन्द्रियग्राह्य नहीं कहा जा सकता। मन भी असाधारण कारण होता है किन्तु वह केवल आन्तरिक सुखादि के बोध मे ही, बाह्य वस्तु के बोध में नहीं।
अथवा बुद्धि में एकद्रव्यत्वसाधक यह भी एक अनुमान है बुद्धि एकद्रव्य वाली है, क्योंकि उसमें सामान्यविशेषवत्ता होने पर भी गुणवत्ता एवं चाक्षुषप्रत्यक्षत्व नहीं है, उदा० शब्द ।
[बुद्धि में क्रियारूपता का निषेधक अनुमान ] बुद्धि में गुणरूपता के निषेध की तरह कर्मरूपता का निषेध भी इस तरह हो सकता है "बद्धि कर्मरूप नहीं है क्योंकि वह संयोग या विभाग में कारण नहीं होती, जो जो संयोग-विभाग में कारण नहीं बनते वे कर्मरूप नहीं होते, उदा० रूप-रसादि, बुद्धि भी संयोग विभाग को कारणभूत नहीं है
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