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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
प्रथेश्वरस्योपदेष्टत्वमंगीक्रियते तदा विमुखत्वमभ्युपेतं हीयत इत्यभुपेतबाधः। एवमन्येष्वपि सर्वज्ञत्वादितद्विशेषसाधकेषु हेतुष्वसिद्धत्वाऽनैकान्तिकत्व-विरुद्धत्वादिदोषजालं स्वमत्याऽभ्यूह्य दिङ्मात्र दर्शनपरत्वात प्रयासस्य । अत एव-"सप्त भुवनान्येकबुद्धि निमितानि, एकवस्त्वन्तर्गतत्वात् , एकावसथान्तर्गतानेकापवरकवत् । यथैकावसथान्तर्गतानामपवरकाणां सूत्रधारकबुद्धिनिर्मितत्वं दृष्टं तथैकस्मिन्नेव भुवनेऽन्तर्गतानि सप्त भुवनानि, तस्मात् तेषाममप्येकबुद्धिनिर्मितत्वं निश्चीयते, यबुद्धिनिर्मितानि चैतानि स भगवान् महेश्वरः सकलभुवनैकसूत्रधारः" [ ] इत्यादिकाः प्रयोगाः प्रशस्त. मतिप्रभृतिभिरुपन्यस्तास्तेष्वपि हेतुरसिद्ध , न ह्य कं भुवनम् आवसथादिर्वास्ति, व्यवहारलाघवार्थ बहुष्वियं संज्ञा कृता, प्रत एव दृष्टान्तोऽपि साधनविकलः, एकसौधाद्यन्तर्गतानामपवरकादीनामनेकसूत्रधारघटितत्वदर्शनाच्चानकान्तिको हेतुः। चलता है यह सभी को मान्य है। यदि ईश्वरात्मकपुरुषकृतउपदेशपूर्वकत्व को सिद्ध करना चाहते हो तब तो हेतु अनैकान्तिक हो जायेगा क्योंकि आधुनिक पुरुषोपदेश से प्रवृत्त नये व्यवहार में आप का इष्ट साध्य नहीं है और प्रत्यर्थनियतत्वरूप हेतु वहाँ रहता है । तथा, कुमारादि के धेनुआदिसंबधी वाणीप्रयोग को आपने दृष्टान्त किया है उसमें तो माताकृत उपदेशपूर्वकत्व है, ईश्वरोपदेशपूर्वकत्वरूप साध्य नहीं है अत: साध्यवैकल्य यह दृष्टान्तदोष हुआ। यह दूषण अन्य हेतुओं में भी समान है यह पहले भी कह चुके हैं। तथा, मुख के विना उपदेश का संभव न होने से हेतु में विरुद्धता दोष और स्वीकृत प्रतिज्ञा में स्वाभ्युपगमबाध ये नये दो दोष हैं-(१) जो मुखविहीन है वह उपदेश नहीं कर सकता यह बात सर्वगम्य है । व्यवहार में अगर ईश्वरोपदेशपूर्वकत्व का संभव होता तब तो विरुद्धता दोष न होता, किन्तु ईश्वर मुखरहित होने से वह उपदेश करे यह बात अनुचित है । मुखरहित इसलिये है कि वह देहधारी नहीं है। देह इसलिये नही है कि उसको धर्म और अधर्म का संपर्क नहीं है। जैसे कि उद्योतकर ने कहा है-"ईश्वर की ज्ञानवत्ता में जैसे प्रमाण है वैसे उसमें नित्य धर्म होने में कोई प्रमाण नहीं है।" [ न्यायवात्तिक ४-१-२१] । अत: ईश्वर में उपदेशकर्तृत्व सम्भव न होने से व्यवहार में तदुपदेशमूलकता की सिद्धि का भी संभव नहीं किंतु अन्य किसी पुरुषकृतोपदेशमूलकता की ही सिद्धि होगी। इस प्रकार हेतु इष्ट का विघात करने वाला होने से विरुद्ध हुआ।
(२) अब यदि ईश्वर में उपदेशकर्तृत्व मानना है तो देह और मुख भी मानना होगा, परिणामतः ईश्वर में जो मुखहीनता मानी है उसकी हानि होगी यह अभ्युपगम बाध हुआ। इस प्रकार ईश्वर के सर्वज्ञतादि अन्य विशेषों के साधक हेतुओं में भी असिद्धता-अनैकान्तिकता-विरुद्धतादि दोषवृद बुद्धिमानों को अपनी अपनी बुद्धि से समझ लेना चाहिये, यह प्रयास तो केवल दिशासूचक ही है।
[ सप्तभुवन में एकव्यक्तिक कत्व की अनुपपत्ति ] प्रशस्तमति आदि नैयायिकों ने जो अन्य प्रयोग दिखलाये हैं जसे सात भूवन एक व्यक्ति की बुद्धि से निर्मित हैं कि एक वस्तु (विश्व ) के अन्तर्गत हैं। उदा० एक मकान के अन्तर्गत अनेक कक्ष । एक बडे राजभवनादि के अन्तर्गत अनेक कक्ष होते हैं वे सब एक ही सूत्रधार की बुद्धि से निर्मित होते हए दिखते हैं, तो उसी तरह एक ही भूवन (विश्व) में अन्तर्गत सात भुवन हैं अतः वे सब एक ही पुरुष की बुद्धि से निर्मित होने का निश्चय किया जा सकता है । जिस पुरुष की बुद्धि से ये निर्मित होंगे वही एक सारे विश्व का निर्माता सूत्रधार भगवान विश्वकर्मा सिद्ध हुए।
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