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प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्ष:
कि च, अन्योपदेशपूर्वकत्वमात्रे साध्ये सिद्धसाध्यता, श्रनादेर्व्यवहारस्य सर्वेषामेवान्योपदेशपूर्वकत्वस्येष्टत्वात् । अथेश्वरलक्षण पुरुषोपदेशपूर्वकत्वं साध्यते तदाऽनैकान्तिकता, अन्यथापि व्यवहारसंभवात् दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता । एतच्चान्यहेतुसामान्यं दूषणं पूर्वमुक्तम् । विरुद्धश्च हेतुः प्रभ्युपेतबाधा च प्रतिज्ञायाः, निर्मुखस्योपदेष्टृत्वाऽसंभवात् यदि ईश्वरोपदेशपूर्वकत्वं व्यवहारस्य संभवेत् तदा स्यादविरुद्धता हेतोः यावताऽसौ विगतमुखत्वादुपदेष्टा न युक्तः, तच्च विमुखत्वं वितनुत्वेन तदपि धर्माधर्मविरहात् तथा चोयोतकरेगोक्तम् - "यथा बुद्धिमत्तायामीश्वरस्य प्रमाणसंभवः नैवं धर्मादिनित्यत्वे प्रमाणमस्ति" [ न्या० वा. ४ १ २१ ] इति । तस्मादीश्वरस्योपदेष्टृत्वाऽसंभवात् तदुपदेशपूर्वकत्वं व्यवहारस्य न सिध्यति किन्त्वीश्वरव्यतिरिक्तान्यपुरुषोपदेशपूर्वकत्वम् अत इष्टविघातकारित्वाद् विरुद्धो हेतुः
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और अवस्थित रह कर प्रवृत्ति करता है इसलिये' ऐसा विशेषणयुक्त हेतु करेंगे जैसे कि प्रशस्त मतिने किया है तो यह हेतु ईश्वर में नहीं रहने से साध्यद्रोही नहीं बनेगा तो यहाँ निवेदन है कि पूर्वोक्त साध्यद्रोह न रहने पर भी, इस प्रकार का हेतु विपक्ष में से निवृत्त है या नहीं - ऐसा संदेह सावकाश होने से हेतु में विपक्षव्यावृत्ति संदिग्ध होने से संदिग्धानैकान्तिकत्व दोष तो लगेगा ही । कारण, विना किसी प्रयत्न से उत्पन्न मेघादि मे हेतु के रहने पर भी वह बुद्धिमान् से अधिष्ठित है या नहीं इस संदेह का कोई निवर्त्तक पुष्ट तर्क न होने से मेघादि ही विपक्षरूप में संदिग्ध हो जाता है और उसमें हेतु रहता है । तथा 'अचेतन है' ऐसा विशेषण लगा देने मात्र से हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति सिद्ध नहीं हो जाती । अतः जो विशेषण हेतु को विपक्ष से निवृत्त करे वैसा ही विशेषण न्याययुक्त है, जो विपक्ष में संदेह की निवृत्ति न करे उसका प्रयोग करना मिथ्या है [ यह पहले भी कहा है- ] तदुपरांत उक्त विशेषण लगाने पर भी पूर्वोक्त रीति से असिद्ध - विरुद्धादि दोष तो यहाँ भी ज्यों के त्यों हैं ।
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[ 'उत्तरकाल में प्रबुद्ध' होने की बात असिद्ध है ]
तथा प्रशस्तमति ने जो यह अनुमान किया था - सृष्टि के प्रारम्भ में होने वाला व्यवहार अन्य के उपदेश से होता है क्योंकि उत्तरकाल में प्रबुद्ध होने वालों का वह व्यवहार प्रति अर्थ नियत होता है [ पृ०४१२ ] - यहाँ भी 'उत्तरकाल में प्रबुद्ध' यह विशेषण प्रतिवादी के प्रति असिद्ध है । कारण, हमारे सिद्धान्त में ऐसा नहीं है कि प्रलयकाल में जीववर्ग ज्ञान और स्मृति को खो देते ही हैं और शरीर-इन्द्रिय से विमुक्त रहते हैं किन्तु हमारा सिद्धान्त तो यह है कि उस काल में पुण्यशाली जोववर्ग अत्यन्तभास्वररूपवाले और स्पष्ट ज्ञानातिशय वाले देवनिकायों में उत्पन्न होते हैं, अथवा नियत प्रकार के नरकादि फलों को देने वाले पाप कर्म जिन्होंने किया है वे लोकधातु के ( नरकों के ) मध्य में उत्पन्न होते हैं । और वहाँ फलभोग काल समाप्त होने पर आभास्वरादि स्थान से बाहर निकल कर इस लोक में ज्ञान और स्मृति सहित ही उत्पन्न होते हैं इस प्रकार प्रलयकाल में वे मूच्छित थे और बाद में प्रबुद्ध बने यह बात हमारे मत में असिद्ध है । तथा इम हेतु में भी हेतु की विपक्ष से निवृत्ति संदेहग्रस्त होने से हेतु में अनैकान्तिकत्व दोष लगेगा ।
[ व्यवहार में ईश्वरोपदेशपूर्वकत्व की असिद्धि ]
तदुपरांत, यदि व्यवहार में सिर्फ अन्योपदेशपूर्वकत्व ही सिद्ध करना हो तो वह हमारे प्रति सिद्ध का ही साधन हुआ क्योंकि अनादिकाल से चलता आया व्यवहार पूर्व पूर्व पुरुषों के उपदेश से ही
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