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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ यच्च-'स्थित्वा प्रवृत्तः' इति साधनमुक्तम् , तत्रान्यदपि दूषणं वाच्यं-सर्वभावानामुद यसमनराऽपर्वागतया क्षणमात्रमपि न स्थितिरस्ति इति कुत: स्थित्वा प्रवृत्तिः ? तस्मात प्रतिवाद्यसिद्धो हेतः अनेकान्तिकश्चेश्वरेणैव । यतः सोऽपि क्रमवत्सु कार्येषु स्थित्वा प्रवर्तते अथ च नासौ चेतनावताऽधिष्ठितः अनवस्थाप्रसंगात । अथ 'अचेतनत्वे सति' इति सविशेषणो हेतरुपादीयते यथा प्रशस्तमतिनोपन्यस्तस्तथापि संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकतयाऽनैकान्तिकत्वमनिवार्यम यदेव हि विशेषणं विपक्षाद्धेतु निवर्तयति तदेव न्याय्यम् , यत् पुनविपक्षे संदेहं न व्यावर्त्तयति तदुपादानमप्यसत्कल्पम् , पूर्वोक्तश्चासिद्धतादिदोषः सविशेषणत्वेऽपि तदवस्थ एव । यच्चोक्तम् 'सर्गादौ व्यवहारश्च' इत्यादि, तत्रापि 'उत्तरकालं प्रबुद्धानाम्' इत्येतद् विशेषणमसिद्धम् । तथाहि-नास्मन्मते प्रलयकाले प्रलुप्तज्ञान-स्मतयो वितनु-करणाः पुरुषाः संतिष्ठते किन्वाभास्वरादिषु स्पष्टज्ञानातिशययोगिषु देवनिकायेषत्पद्यन्ते, ये तु प्रतिनियतनिरयादिविपाकसंवर्तनीयकर्माणस्ते लोकधात्वन्तरेषुत्पद्यन्ते इति मतम् । विवर्तकालेऽपि तत एव आभास्वरादेश्चुत्वा इहाऽलुप्तज्ञानस्मृतय एव संभवन्ति, तस्मात 'उत्तरकालं प्रबुद्धानाम्' इति विशेषणमसिद्धम् । अनेकान्तिकश्च हेतुः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वात् ।। [अनित्यत्वहेतु में असिद्ध-विरुद्धादि दोष प्रसंग ] उपरांत कार्यत्व हेतु में जो असिद्धत्वादि दूषण लगाये हैं वे यथासम्भव यहाँ अनित्यत्व हेतु में भी समानरूप से लग सकते हैं । जैसे देखिये-बुद्धिमत् से अधिष्ठित कुठारादि में जैसा अनित्यत्व प्रसिद्ध है वैसा अनित्यत्व देहादि में सिद्ध नहीं है। और सामान्यत: अनित्यत्व को हेतु माने तो उसमें बुद्धिमदधिष्ठितत्व की व्याप्ति ही सिद्ध नहीं है क्योंकि विना कृषि के उत्पन्न अनित्य वनस्पति आदि में हेतु व्यभिचारी है। कदाचित् व्याप्ति भी मान ली जाय तो भी सर्वज्ञतादि विशेषों के विपरीत असर्वज्ञतादि का साधक होने से अनित्यत्व हेतु विरुद्ध दोप से ग्रस्त है । तथा साधर्म्यदृष्टान्त के रूप में उपन्यस्त कुठार में तो अनित्यबुद्धिमदधिष्ठित्व होने से नित्यबुद्धिमदधिष्ठितत्वरूप साध्य का विरह ही रहेगा क्योंकि कुठार में जो अनित्यत्व है उसमें साध्यधर्मभूत नित्यैकबुद्धिमदधिष्ठितत्व के साथ अन्वयव्याप्ति ही असिद्ध है। यदि सामान्यत: वुद्धिमदधिष्टि तत्व ही सिद्ध करना हो तो यह प्रतिवादी के मत में सिद्ध होने से सिद्धसाधन दोष लगेगा। यदि विशेषरूप से ( नित्यबद्धिमत रूप से ) साध्य किया जाय तो घटादि में व्यभिचार होगा क्योंकि विशेषरूप से विपरीत अनित्यबुद्धिमत् का अधिष्ठान ही वहाँ दिखता है। इस प्रकार नित्य बुद्धिमत् साध्य की सिद्धि के लिये उपन्यस्त सभी हेतुओं में विरुद्ध और व्यभिचार दोष की योजना की जा सकेगी। __उद्योतकर ने जो यह प्रमाण दिखाया था- भूवनहेतुभूत प्रधान प्ररमाणु आदि बुद्धिमान से अधिष्ठित होकर अपने कार्यों को उत्पन्न करते हैं क्योंकि अवस्थित रह कर प्रवृत्ति करते हैं | ४११-५ ] -इसमें अवस्थित रह कर-इस हेतु में अन्य भी एक दूषण कह सकते हैं कि जब भावमात्र उत्पत्ति के दूसरे क्षण में ही नाशाभिमुख हैं तब एक क्षण भी उसको स्थिति असम्भव है तो फिर अवस्थित रह कर कार्य के लिये प्रवृत्ति की बात ही कहाँ ? [ उत्पत्तिक्षण और नाशक्षण के मध्य कोई स्थिति क्षण है नहीं इसलिये क्षणमात्र भी स्थिति न होने का कहा है ] । अतः 'स्थित्वा प्रवृत्तेः' यह हेतु प्रतिवादी के प्रति असिद्ध है । इतना ही नहीं, ईश्वर में वह अनैकान्तिक भी है क्योंकि वह अवस्थित रह कर ही क्रमिक कार्यों में प्रवृत्त होता है किन्तु वह कोई अन्य चेतनावन्त से अधिष्टित नहीं है क्योंकि वैसा माने तो नये नये अधिष्ठायक ईश्वर की कल्पना का अन्त नहीं आयेगा। यदि कहें कि-'अचेतन है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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