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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वराकर्तृत्वे उत्तरपक्षः ५२९ __ यच्च-' एकाधिष्ठाना ब्रह्मादयः पिशाचान्ताः, परस्परातिशयवृत्तित्वात , इह येषां परस्परातिशयवृत्तित्वं तेषामेकायत्तता दृष्टा यथेह लोके गृह-ग्राम-नगर-देशाऽधिपतीनामेकस्मिन् सार्वभौमनरपतौ; तथा च भुजग-रक्षो-यक्षप्रभृतीनां परस्परातिशयवृत्तित्वम् , तेन मन्यामहे तेषामप्येकस्मिन्नीश्वरे पारतन्त्र्यम्" इति-तदेतद् यदि 'ईश्वराख्येनाधिष्ठायकेनकाधिष्ठानाः' इत्ययमर्थः साधयितुमिष्टस्तदानकान्तिकता हेतोः, विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात प्रतिबन्धाऽसिद्धेः । दृष्टान्तस्य च साध्यविकलता । अथ 'अधिष्ठायकमात्रेण साधिष्ठानाः' इति साध्यते तदा सिद्धसाध्यता, यत इष्यत एव सुगतसुतैर्भगवता संबुद्धेन सकललोकचूडामणिना सर्वमेव जगत् करुणावशादधिष्ठितम्, यत्प्रभावादद्याप्यभ्युदय-निःश्रेयससंपदमासादयन्ति साधुजनसार्शः।। सर्वेष्वपि च सर्वज्ञसाधनेषु परोपन्यस्तेषु यदि सामान्येन 'कश्चित् सर्वज्ञः' इति साध्यमभिप्रेतं तदा नाऽस्मान् प्रति भवतामिदं साधनं राजते, सिद्धसाध्यतादोषाव । किन्तु ये सर्वज्ञाऽपवादिनो जैमिनीयाश्चार्वाका वा तेष्वेव शोभते। प्रथेश्वराख्यः सर्वज्ञः साध्येत तदोक्तप्रकारेण प्रतिबन्धासिद्धहेतू प्रशस्तमति ने यह और इसके जैसे अन्य प्रयोग जो दिखाये हैं उनमें भी हेतु असिद्ध है, क्योंकि सारा विश्व अथवा मकान भी कोई एक वस्तुरूप है ही नहीं, अनेकवस्तसमूहात्मक ही यह विश्व है और मकान भी। उन सभी का भिन्न अनेक शब्दों से प्रयोग न करना पड़े इसलिये लाघव के लिये समस्तवस्तु-समूह की 'विश्व' अथवा 'मकान' ऐसी एक संज्ञा की गयी है। इसलिये दृष्टान्तरूप में उपन्यस्त राजभवनादि के अनेक कक्षों में एक वस्तु अन्तर्गतत्वरूप हेतु ही नहीं है । तदुपरांत, जिसको आप 'एक' मानते हैं उस राजभवनादि के अन्तर्गत अनेक कक्षों का कोई एक नहीं किन्तु अनेक सूत्रधार निर्माता होते हैं यह दिखता है इसलिए यहाँ हेतु रह जाय फिर भी साध्य न होने से हेतु साध्यद्रोही बनेगा। [ परस्परातिशय वृत्तित्व हेतुक अनुमान भी सदोष है ] यह भी एक ईश्वरसाधक प्रयोग किसी ने किया है-"ब्रह्मा से लेकर पिशाच तक सब एक व्यक्ति से अधिष्ठित हैं कि एक दूसरे से अपकर्ष-उत्कर्ष रूप अतिशय यानी तरतमभाव से अवस्थित हैं । उदा० जो अन्योन्य तरतम भाववाले होते हैं वे किसी एक को अधीन होते हैं जैसे इस लोक में तरतम भाव से अवस्थित गृहपति, ग्रामस्वामी, नगरपति, देशाधिपति ये सब एक सार्वभौम चक्रवर्ती राजा को आयत्त अधीन होते हैं। इसी प्रकार, सर्प राक्षस-यक्षादि भी तरतमभाव से अवस्थित हैं, अतः मानते हैं कि वे भी किसी एक ईश्वर को परतन्त्र हैं।" किन्तु इस अनुमान प्रयोग में साध्यद्रोहितादि दोष हैं, जैसे देखिये-यदि आपको ईश्वरात्मक एकाधिष्ठायक का अधिष्ठान सिद्ध करना है तो 'ऐसा साध्य न होने पर भी हेतु रहे तो क्या बाध'इस विपक्ष की शंका का कोई बाधक प्रमाण न होने से व्याप्ति असिद्ध होने पर हेतु में अनैकान्तिकता दोष लगेगा। तथा दृष्टान्त में तो आपने एक सार्वभौम राजा का पारतन्त्र्य दिखाया है ईश्वर का नहीं, अत: दृष्टान्त साध्यशून्य हुआ । यदि किसी भी प्रकार से अधिष्ठायक का अधिष्ठान' सिद्ध करना चाहते हैं तब तो बौद्धमत के अनुसार सिद्धसाध्यता दोष होगा। कारण, बुद्ध का अनुयायी वर्ग यह मानता है कि सारा ही विश्व सकललोकशिरोमणितुल्य स्वयंबुद्ध भगवान से अपनी करुणा के द्वारा अधिष्ठित है, जिसके प्रभाव से ही साधुओं का समूह आबादी और मोक्षसंपत्ति को प्राप्त करते हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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