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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ यत्तक्तम् 'भवत्वनिष्ठा यदि तत्प्रसाधकं प्रमाणं किंचिदस्ति, तावत एवाऽनुमानसिद्धत्वात' इति, तदप्यसंगतम् , यत. प्रमाणमन्तरेण हेत्वाभासाद् यद्येकस्य सिद्धिरभ्युपगम्यते अपरस्यापि तत एव सा कि नाभ्युपगम्यते ? प्रमाण सिद्धत्वं तु तावतोऽपि नास्ति, अनिष्ठया तत्प्रसाधकस्य प्रमाणस्याऽप्रामा. ण्याऽऽसजनाद् । यदप्युक्तम् 'प्रागमोऽप्यस्मिन् वस्तुनि विद्यते'....इत्यादि, तदप्ययुक्तम् , प्रागमस्य तत्प्रणीतत्वेन प्रामाण्यं तत्प्रामाण्याच्च ततस्तत्सिद्धिरितीतरेतराश्रयप्रसवतेः । नित्यस्य त्वागमस्य प्रामाण्यं वैशेषिकर्मभ्युपगतम, ईश्वरकल्पनावैयर्यप्रसंगात । नाप्यन्येश्वरकृततदागमात, तत्रापि तत्कृतत्वेन प्रामाण्ये इतरेतराश्रयदोषात । अपरेश्वर प्रणीतापरागमकल्पनेऽपि तदेव वक्तव्यमित्यनिष्ठाप्रसक्तिः । तदेवं स्वरूपेऽर्थे आगमस्य प्रामाण्येऽपि न तत ईश्वरसिद्धिः। यत्ततम् 'तस्य च सत्तामात्रेण स्वविषयग्रहण प्रवृत्तानां क्षेत्रज्ञानामधिष्ठायकता यथा स्फटिकादीनामुपधानाकारग्रहणप्रवृत्तानां सवितप्रकाशः' तदयुक्तम् , सत्तामात्रेण सवितप्रकाशस्यापि स्फटिकाद्यधिष्ठायकत्वाऽसंभवात-तदसंभवश्चाकाशादेरपि सत्तामात्रस्य सद्भावात तदधिष्ठायकता स्यातकिंतु सवितप्रकाशस्य तद्विशिष्टावस्थाजनकत्वेन तदधिष्ठायकत्वम् , तच्चेत क्षेत्रज्ञेष्वीश्वरस्य परि अधिष्ठित मानेंगे वैसे समान युक्ति से उस अनियतविषय वाले चेतन क्षेत्र को भी अन्य अनियतविषयवाले चेतन से अधिष्ठित मानने की आपत्ति आयेगी। इस प्रकार अन्य अधिष्ठाता की कल्पना का अन्त ही नहीं आयेगा। तदुपरांत, चेतन क्षेत्रज्ञों के यदि आप अन्य अधिष्ठाता चेतन को मानते ही हैं तब तो आपने जो यह प्रयोग किया था - 'अचेतन वस्तु चेतन से अधिष्टित होकर ही प्रवृत्त होती है क्योंकि अचेतन है, उदा० कुठारादि'-इस प्रयोग में पक्ष और हेतु में 'अचेतन विशेषण व्यर्थ हो जायेगा क्योंकि अचेतन पद के व्यवच्छेद्य चेतन को भी आप चेतनाधिष्ठित तो मानते ही हैं अत: वास्तव में वह व्यवच्छेद्य ही नहीं रहा। [ अनवस्थादोष से पूर्वसिद्ध में अप्रामाण्य का ज्ञापन ] अधिष्टाता के रूप में ईश्वर की कल्पना करने पर जो अनवस्था दोष लगता है उसके संबन्ध में पर्वपक्ष में जो कहा था....नये नये अधिष्ठाता की कल्पना में यदि कोई प्रमाण विद्यमान हो तब तो अनवस्था को भी होने दो । किन्तु वैसा कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि अनुमान प्रमाण से केवल एक ही अधिष्ठाता सिद्ध होता है [ ४०१-७ ]....यह भी असंगत है । क्योंकि अनवस्था दोष के कारण अधि. ष्ठाता का प्रसाधक हेतु ही हेत्वाभासरूप हो जाता है। अत: अन्य प्रमाण के विना यदि इस हेत्वाभास से एक अधिष्ठाता की सिद्धि मानेंगे तो उसीसे दूसरे की सिद्ध भी क्यों नहीं मानी जायेगी ? प्रथम अधिष्ठाता भी कहीं प्रमाणसिद्ध तो है नहीं क्योंकि अधिष्ठाता का साधक जो प्रथम अनुमान है उसमें तो अनवस्था दोप से अप्रामाण्य प्रसक्त है। [ सर्वज्ञ की सिद्धि में आगम प्रमाण कैसे ? ] नैयायिक ने जो यह कहा है कि....ईश्वरसिद्धि में आगम भी प्रमाण है .. [ १० ४०२ ] यह भी दीक नहीं क्योंकि आगम तो ईश्वर रचित मानने पर ही प्रमाण माना जा सकेगा और तब उसके प्रामाण्य से ईश्वर सिद्ध हो सकेगा, किन्तु इस रीति से तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा। वैशेषिक और नैयायिक मत में आगम प्रमाण को नित्य तो माना हो नहीं जाता जिससे कि इतरेतराश्रय दोष टाला जा सके। तथा आगम को यदि नित्य मानेगे तो ईश्वर की कल्पना व्यर्थ हो पड़ेगी । इतरेत राश्रय दोष Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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