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प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः
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यच्चोक्तम् क्षेत्रज्ञानां नियतार्थविषयग्रहणं सर्वविधिष्ठितानाम् , यथा प्रतिनियतशब्दादिविषयग्राहकाणामनियतविषयसर्वविदधिष्ठितानां जीवच्छरीरे....इत्यादि-तदप्यसंगतम् , यतः शब्दादिविषयग्राहकाणामिति दृष्टान्तत्वेनोपन्यासो यदीन्द्रियाणां तदा तेषां करणत्वाद् वेदनलक्षण क्रियाऽनाश्रयत्वात् कथं नियतशब्दादिविषयग्रहणम् ? अथ ग्रहणाधारत्वेन न तेषां नियतशब्दादिविषयग्रहणम् किंतु करणत्वेन । नन्वेवं क्षेत्रज्ञानामपि विषयग्रहणे करणत्वम् न कर्तृत्वमिति घटादि कुलालकर्तृकं तत्कारणशक्तिपरिज्ञानेन न सिद्धमिति कुतस्तदृष्टान्तात् क्षित्यादेज्ञानाधारकर्तकत्वं सिद्धिमुपगच्छति ? ! यदि पुननिसमवायेन चक्षुरादीनां नियतविषयाणां कर्तत्वेऽप्यनिपतविषयाऽपरक्षेत्रज्ञकधिष्ठितत्वमंगीक्रियते तहि चेतनानामपि क्षेत्रज्ञानां नियतविषयाणां यथा परोऽनियतविषयश्चेतनोऽधिष्ठाताऽभ्युपगन्तव्यः, तस्याप्यपर इत्यनवस्थाप्रसक्तिः । तथा, चेतनानामपि क्षेत्रज्ञानां यदा चेतनोऽधिष्ठाताऽभ्युपगम्यते तदा 'अचेतनं चेतनाधिष्ठितं प्रवर्तते, अचेतनत्वात् , वास्यादिवत्' इति प्रयोगेऽचेतन ग्रहणं धमि-हेतुविशेषणं नोपादेयं स्यात , व्यवच्छेद्याभावात् ।
[ कुम्हारादि में सर्वज्ञत्व की प्रसक्ति ] यह जो कहा था-कुलालादि में दृष्ट असर्वज्ञतारूप विशेष को ईश्वर में सिद्ध नहीं किया जा सकता....इत्यादि-[ ४००-७ ] वह भी अयुक्त है । कारण, कुम्हार आदि को यदि घटादि कार्य के उपादानादि सभी कारणों का ज्ञान होगा तो कर्म आदि निमित्तकारणों का भी ज्ञान न्यायप्राप्त होने से कूर हारादि में ही सर्वज्ञता की प्रसक्ति होगी, फिर अन्य सर्वज्ञ ईश्वर की कल्पना व्यर्थ हो जायेगी। क्योंकि ईश्वर को घटादिनिर्वर्तक अतीन्द्रिय अदृष्ट का ज्ञान जैसे होगा वैसे ही कुम्हार को भी सकल पदार्थ का ज्ञान प्रसक्त है । यदि कहें कि-अदृष्ट के ज्ञान विना भी मिट्टोपिण्ड-दंडादि कुछ कारकों की शक्ति के ज्ञान से ही कुम्हार घटादिरूप कार्य को उत्पन्न कर देगा-तो फिर ईश्वर भी अतीन्द्रियसकलपदार्थ के ज्ञान विना सिर्फ कुछ कुछ कारकों की शक्ति के ज्ञान से ही अपने कार्य को कर देगा, अतः सकलकार्यनिष्पादकत्व की अन्यथा अनुपपत्ति के बल से ईश्वर में अतीन्द्रिय सर्वपदार्थज्ञातृत्वरूप सर्वज्ञत्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी।
[क्षेत्रज्ञ में सर्वज्ञ के अधिष्टितत्व के अनुमान की परीक्षा] यह जो कहा था क्षेत्रज्ञों (आत्मा) का नियतार्थविषयग्रहण सर्वज्ञ से अधिष्टित होने के कारण होता है, जैसे जिदे शरीर में प्रतिनियत शब्दादिविषय के ग्राहक, अनियतविषयवाले सर्वज्ञ से अधिष्ठित होते हैं....इत्यादि [ पृ० ४०१] वह भी असंगत है । कारण, दृष्टान्तरूप में उपन्यस्त शब्दादिविषयों के ग्राहकरूप में अगर आपको इन्द्रिय अभिप्रेत हैं तो वे संवेदनरूपक्रिया के आश्रय ही नहीं है फिर नियतशब्दादिविषय का ग्रहण कैसे संगत कहा जाय? यदि कहें कि-ग्रहण (=वेदन) के आश्रयरूप में उन्हें ग्राहक नहीं मानते किन्तु कारण होने से ग्राहक मानते हैं । तो इस तरह के हष्टान्त से क्षेत्रज्ञ में भी विषयग्रहण में कारणत्वरूप ही ग्राहकत्व मानना होगा, कर्तृत्वरूप नहीं। इस स्थिति में कारकशक्तिपरिज्ञानमूलक घटादिकर्तृत्व कुम्हार में ही सिद्ध नहीं होगा तो उसके दृष्टान्त से पृथ्वी आदि में भी ज्ञानवान् कर्ता की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? तथा, यदि नियतविषयवाले नेत्रादि को ही ज्ञान के समवाय से कर्ता मान लेगे और उनमें अनियतविषयवाले अन्य क्षेत्रज्ञ कर्ता से अधिष्ठितत्व का अंगीकार करेंगे तब तो नियतविषय वाले चेतन क्षेत्रों को जैसे अनियतविषयवाले अन्य चेतन से
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