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________________ ५१४ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ तत स्थितमेतत-न शरीराभावे महेशस्य कर्तृत्वमिति । तेन शरीरमनःसम्बन्धाभावे प्रयत्नबयादेरभावादीश्वरसतवाऽसिद्धा । अतः "तदभावे कस्य विशेषः शरीरादियोगलक्षणः साध्यते?".... इत्यादिपूर्वपक्षवचनं निःसारतया व्यवस्थितम् । प्रसंगविपर्ययोनिमित्तभूतव्याप्तिप्रदर्शनस्य विहितत्वात । यदप्युक्तम 'ज्ञान चिकीर्षा प्रयत्नानां समवायोऽस्तीश्वरे, ते तु ज्ञानादयस्तत्र नित्याः' तदप्यप्रक्तत्वेन प्रतिपादितम् । यच्चोक्तम्-'तत्र शरीरसम्बन्धस्य व्याप्त्यभावादसिद्धिः' तदप्यसत्, शरीर. सम्बन्धस्य कर्तृत्वव्यापकत्वप्रतिपादनात। यदप्यूक्तम्-'नाप्यसर्वज्ञत्वं विशेषः कुलालादिषु दृष्टस्तत्र साध्यते' इत्यादि, तदप्ययुक्तम् , कुलालादेर्घटादिकार्यस्योपादानाद्यभिज्ञत्वे कर्मादिनिमित्तकारणाभिज्ञत्वप्राप्तेः सर्वज्ञत्वप्रसक्तिः इति व्यर्थमपरेश्वरसर्वज्ञपरिकल्पनम् , तनिर्वतकातीन्द्रियाऽदृष्टपरिज्ञानवत् तस्यापि सकलपदार्थपरिज्ञानप्रसक्तेः । अथाऽदृष्टाऽपरिज्ञानेऽपि कुलालो मत्पिण्डदण्डादिकतिपयकारकशक्तिपरिज्ञानादेव घटादिलक्षणं स्वयकार्य निर्वतयतीति । तीश्वरोऽप्यतीन्द्रियाशेषपदार्थपरिज्ञानमन्तरेणाऽपि कतिपयकारकशत्ति.प. रिज्ञानादेव स्वकार्य निर्वतयिष्यति इति न सकलकार्यकर्तृत्वान्यथाऽनुपपत्त्या तस्यातीन्द्रियाद्यशेषपदार्थजत्वलक्षणसर्वज्ञत्वसिद्धिः। यदि वह सर्वज्ञ होने पर भी अशरीरी होगा तो मुख के विरह में उपदेश का सम्भव नहीं रहेगा, अतः सर्वज्ञकथितत्व के आधार पर उपदेश का प्रामाण्य सिद्ध नहीं हो सकेगा, फलतः शास्त्र से ममक्षओं की प्रवत्ति रुक जायेगी। इस अनिष्ट के निवारणार्थ सर्वज्ञ ईश्वर में उपदेश कर्तृत्व घटाने के लिये देहसम्बन्ध भी अवश्य मानना पड़ेगा, क्योंकि व्याप्य का स्वीकार व्यापकस्वीकार का अविनाभावी होता है । तथा, देहसम्बन्ध को यदि नहीं मानेगे तो उसका व्याप्य उपदेशकर्तृत्व भी नहीं मान सकते ।-इस प्रकार प्रसंग और विपर्यय से दोनों ओर नैयायिक को बन्धन प्राप्त है। उपदेशकर्तृत्व और देहसम्बन्ध के बीच व्याप्य-व्यापक भाव की सिद्धि के लिये पहले हमने कार्य-कारणभावगभित यह प्रमाण दिखाया ही है कि यदि तालु-ओष्ठादि की क्रिया के विना भी उपदेश की सम्भावना करेंगे तो उपदेश में ओष्ठ-तालुक्रिया की कारणता का ही भंग हो जायेगा, [ पृ. पं. ] अब फिर से इस का प्रदर्शन करना आवश्यक नहीं है। [ देहादि के विरह में ईश्वरसत्ता की असिद्धि ] इस तरह यह सिद्ध हुआ कि शरीर के अभाव से ईश्वर में कतृत्व भी नहीं है। फलतः, देह और मन के संयोग विना प्रयत्न और बुद्धि न होने से ईश्वर की सत्ता ही सिद्ध नहीं हो सकती। इसलिये पर्वपक्षी का यह वचन ईश्वर के अभाव में आप किस व्यक्ति के विशेषरूप में देहादिसम्बन्ध सिद्ध करेंगे? [ ३९९-८ ] इत्यादि, यह सारहीन सिद्ध हुआ, क्योंकि प्रसंग और विपयय की प्रयोजक समाप्ति कर्तत्व में देह की व्याप्ति) का प्रदर्शन हो चुका है । यह जो कहा था ईश्वर में भी ज्ञान, उत्पादनेच्छा और प्रयत्न का समवाय है, और ईश्वर के ये ज्ञानादि नित्य हैं [ ४००-५ ] यह भी अयक्त प्रतिपादन ही है क्योंकि नित्यज्ञानादि किसी भी प्रकार नहीं घटते यह दिखा चुके हैं । यह जो कहा था-'कर्तत्व में शरीरसम्बन्ध की व्याप्ति ही न होने से शरीर असिद्ध है' [ ३९९-२ ] यह भी जठा है क्योंकि देहसम्बन्ध कर्तृत्व का कैसे व्यापक है यह हम दिखा चुके हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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