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प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः
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सुप्त प्रमत्तादौ च ताल्वादिकारणपरिज्ञानाभावेऽपि तयापारे प्रयत्नलक्षणे सति तत्प्रेरणकार्यदर्शनात् । यदप्यभिधानमात्रेण विषापहारादिकार्यकर्तृत्वम् तदपि न ज्ञानमात्रनिबन्धनम किंतु शरीरसम्बन्धाऽविनाभूतविशिष्टात्मप्रयत्नहेतुकमेव ।
अपि च, विशिष्ट धर्माऽधर्माद्युपदेशविधायीश्वरः सर्वज्ञत्वेन मुमुक्षुभिरुपास्यः, अन्यथा अज्ञोपदेशानुष्ठाने तेषां विप्रलम्भशंकया तत्र प्रवृत्तिर्न स्यात् । तदुक्तम् -[ प्रमाणवा० १-३२]
- "ज्ञानवान् मृग्यते कश्चित्तदुक्तप्रतिपत्तये। अज्ञोपदेशकरणे विप्रलम्भनशंकिभिः ।।" तस्य च सर्वज्ञत्वे सत्यप्यशरीरिणो वक्त्राभावादुपदेष्टत्वाऽसम्भव इति तत्कृतत्वेन तदुपदेशस्य प्रामाण्याऽसिद्धर्न मुमुक्षूणां तत्र प्रवृत्तिः स्यादिति उपदेशकर्तृत्वे तस्य शरीरसम्बन्धोऽप्यवश्यमभ्युपगन्तव्यः, व्याप्याभ्युपगमस्य व्यापकाभ्युपगमनान्तरोयकत्वात् । शरीरसम्बन्धाभावे तु व्याप्यस्याप्युपदेशविधातृत्वस्याभाव इति प्रसंग-विपर्ययौ । व्याप्यव्यापकभावप्रसाधकं च प्रमाणे ताल्वादिव्यापाराभावे. ऽप्युपदेशस्य सद्भावे तस्य तद्धतुकत्वं न स्यादिति कार्य कारणभावप्रसाधकं प्रागेव प्रदर्शितमिति न पुनरुच्यते। आदि और हस्त-पादादि के संचालन का कर्तृत्व होता है। ये सभी प्रकार के कर्तृत्व का व्यापकभूत है शरीरसम्बन्ध, क्योंकि उसके विना उपरोक्त चार में से एक भी प्रकार का कर्तृत्व नहीं होता। यदि ईश्वर में शरीरसम्बन्ध नहीं रहेगा तो उसका व्याप्य कर्तृत्व भी निवृत्त होगा-फलत: ईश्वर में कर्तृत्व नहीं माना जा सकेगा-यह प्रसंग साधन हुआ।
उसका विपर्यय भी इस प्रकार है कि-यदि ईश्वर में जगत्कर्तृत्व मानते हैं तो उसका व्यापक शरीरसम्बन्ध भी मानना ही होगा।
[कारकशक्तिज्ञान स्वरूप कतृत्व अनुपपन्न ] यदि कहें कि-कर्तृत्व कारकों की शक्ति का परिज्ञानरूप है और ऐसे कर्तृत्व के साथ देहसम्बन्ध का व्याप्य-व्यापक भाव नहीं, अर्थात व्याप्ति के विरह में प्रसंग और विपर्यय दोनों का
न भग्न हो जायेगा । तो यह ठीक नहीं, क्योंकि कुम्हारादि दृष्ट कर्ताओं में मिट्रो-दण्डआदि कारकों की शक्ति का ज्ञान होते हुए भी देह व्यापार के विना घटादि कार्य का कर्तृत्व नहीं देखा जाता । उपरांत, सुषुप्ति और प्रमत्तावस्था में ओष्ठ-तालु आदि कारकों का ज्ञान न रहने पर भी उसके संचालक प्रयत्न के होने पर उनका संचालनरूप कार्य दिखता है अतः कारकशक्तिज्ञान यह कर्तत्वरूप नहीं माना जा सकता । तदुपरांत, जहाँ किसी पवित्र पुरुष के नाम मात्र के उच्चारणादि से विष का उत्तारण आदि कार्य का कर्तृत्व दिखता है वहाँ केवल कारकज्ञान ही कर्तृत्व का मूल नहीं है किन्तु देहसम्बन्धाविनाभावि विशिष्ट प्रकार का आत्मप्रयत्न ही कर्तृत्व में हेतुभूत होता है।
[ मुखादि के अभाव में वक्तृत्व की अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है विशिष्ट धर्माधर्मादि पदार्थ का उपदेशक ईश्वर सर्वज्ञत्व के आधार पर ही मुमुक्षुओं के लिये उपास्य होता है। यदि वह सर्वज्ञ नहीं होगा तो अज्ञानी के उपदेश से अनुष्ठान करने पर फलविसंवाद की शंकावाले मुमुक्षुओं की प्रवृत्ति ही रुक जायेगी। जैसे कि कहा है -
अज्ञानी के उपदेश से प्रवत्ति करने में फलविसंवाद की शंकावाले ( मुमुक्षओं ) शास्त्रोक्त अर्थों को जानने के लिये ज्ञानी का अन्वेषण करते हैं।
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