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प्रथमखण्ड-का० १ इश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्ष:
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कल्प्यते तदा तेषां तत्कार्यताप्रसक्तिः, तथा च यथा क्षेत्रज्ञानामात्मत्वेऽविशिष्टेऽपि कार्यता तथेश्वरस्थात्मत्वाऽविशेषात कार्यतेति तदधिष्ठायकोऽपरस्तत्कर्ताऽभ्युपगन्तव्यः, तत्राप्यपर इत्यनवस्था। अथ तस्य कार्यत्वे सत्यप्यनधिष्ठितस्यैव स्वकार्ये प्रवृत्तिस्तहि जगदुपादानादेरपि तदनधिष्ठितस्य प्रवृत्तिरिति व्यभिचारी अधिष्ठातृसाधकत्वेनोपन्यस्यमानस्तेनैव हेतुः ।
___ अपि च, सत्तामात्रेण तस्य तदधिष्ठायकत्वे गगनस्येव न सर्वज्ञत्वम् इति सर्वज्ञत्वसाधकहेतोस्तद्विपर्ययसाधनाद् विरुद्धत्वम् । न च सर्वविषयज्ञानसमवायाव तत्र तस्यैव सर्वज्ञत्वं नाऽऽकाशादेरिति वक्तु युक्तम् , समवायस्य निषिद्धत्वात् , सत्त्वेऽपि नित्यव्यापकत्वेनाकाशादावपि भावप्रसंगात् । न च समवायाऽविशेषेऽपि समवायिनोविशेष इति वक्तुं शवयम् , तद्विशेषस्यैवाऽसिद्धत्वात् , सिद्धत्वेऽपि समवायपरिकल्पनावैयर्थ्यप्रसंगादिति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् । न च सत्तामात्रेण तस्य तदधिष्ठायकत्वे ज्ञानमात्रमप्यूपयोगि आस्तां सकलपदाथसाथकारकपरिज्ञानम।
के भय से यदि यह कहें कि-ईश्वर की सिद्धि तत्कृत आगम से नहीं किन्तु अन्य ईश्वर रचित अन्य आगम से ही मानेंगे-तो वहां उस ईश्वर की सिद्धि और उसके आगम के प्रामाण्य की सिद्धि में भी उपरोक्त बात की पुनरावृत्ति होने से वही इतरेतराश्रय दोष लौट आयेगा । यदि उस नये ईश्वर की सिद्धि के लिये भी अन्य ईश्वर रचित अन्य आगम को प्रमाण मानेंगे तो ऐसे नये नये ईश्वर और आगम की कल्पना का अन्त कहाँ होगा? इस प्रकार, आगम से तो ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती, भले ही उसे स्वरूपार्थ में प्रमाण माना जाय ।
[ सत्तामात्र से ईश्वराधिष्ठान की अनुपपत्ति ] यह जो कहा था-अपने विषय के ग्रहण में प्रवृत्त क्षेत्रज्ञों का, ईश्वर केवल अपनी सत्तामात्र से ही अधिष्ठायक होता है। उदा०-उपाधि-आकार के ग्रहण में प्रवत्त स्फटिकादि का जैसे सूर्यप्रकाश अधिष्ठायक होता है। [ ४०४-३ ]-यह बात गलत है, केवल सत्तामात्र से ईश्वर स्फटिकादि का अधिष्ठायक बने यह संभव नहीं है। असंभव इस लिये कि ऐसे तो सत्तामात्र से आकाशादि भी स्फटिकादि के अधिष्ठायक होने की आपत्ति है । सूर्य प्रकाश तो इस लिये अधिष्ठायक कहा जा सकता है कि वह स्फटिक की अपने संपर्क से विशिष्ट अवस्था का जनक है। यदि क्षेत्रों में ईश्वर का विशिष्टावस्थाजनकत्वरूप अधिष्ठायकत्व मान लिया जाय तब तो क्षेत्रों में भी ईश्वरजन्यत्व की आपत्ति होगी तब तो जैसे आत्मत्व समान होने पर भी क्षेत्रों में कार्यत्व होगा वैसे आत्मत्व के समान होने से ईश्वर में भी कार्यत्व होगा। अत: उसके भी जनकरूप में अन्य ईश्वरअधिष्ठायक को मानना पडेगा, फिर उसमें भी कार्यता की प्रसक्ति से अन्य ईश्वर की कल्पना का अन्त ही नहीं होगा । यदि कहें कि- उसमें कार्यत्व होने पर भी वह तो अन्य से अधिष्ठित हये विना ही अपने कार्यों में प्रवर्तगा-तो फिर जगत् के उपादान कारणों की भी ईश्वर से अधिष्टित हये दिना ही प्रवत्ति मान लेने में क्या कठिनाई है ? आपने जो अधिष्ठाता का साधक हेतु दिखाया है वह आप के ईश्वर में ही व्यभिचारी बन जायेगा क्योंकि वहां कार्यत्व तो आपने मान लिया और अन्य ईश्वर से अधिष्ठितत्व को नहीं माना।
[सत्तामात्र से अधिष्ठान में असर्वज्ञता] सदुपरांत, ईश्वर को केवल सत्तामात्र से ही अधिष्ठायक मान लेने पर गगन की तरह उसमें
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