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प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर० उत्तरपक्ष:
बुद्धिश्चेश्वर यदि नित्या व्यापिका चाऽभ्युपगम्येत तदा सेवाऽचेतनपदार्थाधिष्ठात्री भविष्यतीति किमपरतदाधारेश्वरात्मपरिकल्पनया? अथानाश्रितं तज्ज्ञानं न सम्भवतीति तदात्मपरिकल्पना। नन् तदात्माऽप्यनाश्रितो न संभवतीति अपरापराश्रयपरिकल्पनयाऽनन्तेश्वर प्रसङ्गः । अथ द्रव्यत्वात्तस्थाऽनाश्रितस्यापि सद्भावः न बुद्धेः- गुणत्वात्-इति नायं दोषः । ननु कुतस्तस्या गुणत्वम् ? 'तत्र समवेतत्वादिति नोत्तरम, तस्यैवाऽनिश्चयात् । तदाधेयत्वात्तस्याः तत्समवेतत्वमिति चेत् ? ननु केनैतत् प्रतीयते ? न तावदीश्वरेण, तेनात्मनो ज्ञानस्य चाऽग्रहणात् इदमत्र समवेतम्' इति तस्य प्रतीतेरयोगात् । 'तज्ज्ञानस्य तत्र समवेतत्वमेव तद्ग्रहणमि'त्यपि नोत्तरम् , अन्योन्यसंश्रयात्-सिद्ध हि 'इदमत्र' इति ग्रहणे तत्र तत्समवेतत्वसिद्धिः, अस्याश्च तद्ग्रहणसिद्धिरित्यन्योन्याश्रयः । तन्नेश्वरस्तज्ज्ञानमात्मनि समवेतमवैति, यश्चात्मीयमपि ज्ञानमात्मनि व्यवस्थितं न वेत्ति स सर्वजगदुपादानसहकारिकारणादिकमवगमयिष्यतीति कः श्रद्धातुमर्हति ?! तब तो हमारा अविकलकारणत्व हेतु असिद्ध नहीं होगा। अतः सारे जगत् की एक साथ उत्पत्ति की आपत्ति भी तदवस्थ रहेगी।
[अविकलकारणत्व हेतु में अनेकान्तिकतादोष नहीं ] अविकलकारणत्व हेतु को अनैकान्तिक भी नहीं दिखा सकते, क्योंकि यदि कार्य अवश्य उत्पन्न नहीं होगा तो वहाँ अविकलकारणत्व ही नहीं रह सकेगा, (क्योंकि दोनों समव्यापक है,)। यदि अविकलकारणत्व के रहने पर भी कार्योत्पत्ति नहीं मानेंगे तब तो कभी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो पायेगी, क्योंकि कारण की उत्पत्ति के लिये अविकलकारणता से अधिक तो कोई विशेष है नहीं जिस की अनुपस्थिति से कदाचित् कार्य की अनुत्पत्ति कही जा सके । उद्योतकरने भी जो यह कहा है-हालाँ कि ईश्वरस्वरूप अविकल कारण नित्य होने से सदा सर्व भावों को संनिहित ही है, फिर भी सभी की एक साथ उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि ईश्वर बुद्धिपूर्वक कार्य करता है। यदि वह अपनी सत्तामात्र से अबुद्धिपूवक ही भाव का उत्पादक होता तब तो वह आपादन शक्य था कि जब वह बुद्धिपूर्वक करता है तब कोई दोष नहीं है, क्योंकि वह अपनी इच्छा से ही कार्यों के लिये प्रवृत्त होगा । अतः हेतु में कान्तिकता का दोष नहीं है।"-यह उद्योतकर का कथन भी परास्त हो जाता है । कारण, कार्यों की प्रवत्ति और निवत्ति कारण की इच्छा के भावाभाव को आधीन यदि होती तब तो अप्रतिहत सामर्थ्यवाले ईश्वरस्वरूप कारण सदा संनिहित होने पर भी उसकी इच्छा के अभाव में कार्यों की अप्रवृत्ति मानना संगत है, किंतु वैसा नहीं है, सभी भाव कारणगत सामर्थ्य के ही भावाभाव का अनुसरण करते हैं।
जैसे देखिये, इच्छा के होने पर भी कर-चरणादि के संचालन में अशक्त कुम्हारादि असमर्थ होने से घटादि भाव उत्पन्न नहीं होते। और किसी की इच्छा न होने पर भी सामर्थ्य वाले बीज से अंकुरादि की उत्पत्ति दिखाई देती है अब यदि ईश्वर स्वरूप कारण कार्योत्पादक काल के जैसे अप्रतिहत शक्ति वाला सदैव भावों का संनिहित होगा तो फिर स्व की अनुपकारक ईश्वरेच्छा की अपेक्षा क्यों रहेगी ? जब अपेक्षा नहीं होगी तो उत्पादक काल की भाँति सदा संनिहित ईश्वरस्वरूप कारण से एक साथ सभी भावों की उत्पत्ति क्यों नहीं होगी ? यदि उनकी एक साथ उत्पत्ति होती तब तो यह दिखाई देता कि अपने कारण अविकल हैं। तथा, नित्य ईश्वर किसी का भी उपकार्य नहीं है जिससे कि उसको किसी की अपेक्षा रहे, फिर इच्छा की भी अपेक्षा क्यों मानी जाय ? तथा, इच्छा भी 'मैं ऐसा
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