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________________ ५०८ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ न चानैकान्तिकोऽपि विकलकारणत्वहानिप्रसंगात्, अविकलकारणस्याप्युत्पत्तौ सर्वदेवाऽनुत्यत्तिप्रसंगाच्च विशेषाभावात् । एतेन यदप्युद्द्द्योतकरेणोक्तम् " यद्यपि नित्यमीश्वराख्यं कारणमविकलं भावानां संनिहितं तथापि न युगपदुत्पत्तिः, ईश्वरस्य बुद्धिपूर्वकारित्वात् । यदि होश्वरः सत्तामात्रेणैवाऽबुद्धिपूर्व भावानामुत्पादकः स्यात्तदा स्यादेतच्चोद्यम, यदा तु बुद्धिपूर्वं करोति तदा न दोषः, तस्य स्वेच्छया कार्येषु प्रवृत्तेः श्रतोऽनैकान्तिकतैव हेतो: " [ इति, तदपि निरस्तम् । न हि कार्याणां कारणस्येच्छाभावाभावापेक्षया प्रवृत्ति निवृत्ती भवतः येनाऽप्रतिबद्धसामर्थ्येऽपीश्वराख्ये कारणे सदा संनिहिते तदीयेच्छाऽभावाद् न प्रवत्तैरन्, कि तहि कारणगत सामर्थ्यभावाभावानुविधायिनो तथाहि - इच्छावतोऽपि कर वरणादिव्यापाराऽक्षमात् कुलालादेरसमर्थाद् नोत्पद्यन्ते घटादयो भावाः, समर्थाच्च बीजादेरनिच्छावतोऽपि समुत्पद्यमाना उपलभ्यन्तेऽङकुरादयः । तत्र यदीश्वराख्यं कारणं कार्योत्पादकालवद प्रतिहतशक्ति सदैवावस्थितं भावानां तत् कमिति तदीयामनुपकारिणीं तामिच्छामपेक्षन्ते येनोत्पादकालवद् युगपन्नैवोत्पद्यरन् ? एवं हि तैरविकलकारणत्वमात्मनो दर्शितं भवेत् यदि युगपद् भवेयुः । न चापीश्वरस्य परंरनुपकार्यस्य काचिदपेक्षाऽस्ति येनेच्छामपेक्षेत । न च बुद्धिविशेषव्यतिरेकेणापरा इच्छा तस्य सम्भवति । भावाः । उत्पत्ति की आपत्ति नहीं रहेगी । किन्तु यह गलत है । यदि नित्यज्ञान के ऊपर सहकारियों को कोई उपकार करना होता तब तो उसे सहकारियों की अपेक्षा हो सकती, किन्तु ईश्वरज्ञान तो नित्य होने से अपरिवर्तनशील है अतः उसमें कुछ भी नये अतिशय (संस्कार) का आधान शक्य ही नहीं है फिर सहकारियों से उसको कुछ भी लेना देना नहीं है तो अनुपकारक सहकारियों की वह क्यों अपेक्षा रखेगा ? दूसरी बात यह है कि वे सहकारि भी ईश्वरज्ञान से जन्य हैं या अजन्य ? A यदि जन्य मानेंगे तो वे ईश्वरज्ञान रूप नित्यकारण से उत्पन्न होकर सारे जगत् की उत्पत्ति में सदा संनिहित ही क्यों नहीं रहेंगे ? यदि कहें कि सहकारियों के संनिधान के हेतु भी अन्य सहकारी हैं तो वे सहकारि भी ईश्वरज्ञान जन्य मानने पर सदा संनिहित रहेंगे अतः तदधीन उत्पत्ति वाले सहकारी भी सदा संनिहित ही रहेंगे । तात्पर्य, सहकारीयों को ईश्वरज्ञान जन्य मानने पर उनकी संनिधि सदा उपस्थित रहने से अविकलकारणत्व हेतु असिद्ध नहीं होगा । यदि कहें कि ईश्वरज्ञान तो नित्य है किन्तु पहले उससे सहकारी कारण की उत्पत्ति होगी, बाद में अंकुरादि कार्य की उत्पत्ति होगी ऐसा हम मानते हैं, अतः एक साथ उत्पत्ति की आपत्ति नहीं है तो यहां अंकुरादि कार्य कभी उत्पन्न न होने की आपत्ति आयेगी । कारण, सहकारीयों की उत्पत्ति करने के लिये भी अन्य सहकारीयों की अपेक्षा होगी, उन को उत्पन्न करने में अन्य अन्य सहकारीयों की अपेक्षा होगी, इस प्रकार पूर्व पूर्व सहकारीयों को उत्पन्न करने में ही ईश्वरज्ञानादि की शक्ति क्षीण हो जाने पर अंकुरादि की उत्पत्ति का अवसर ही नहीं रहेगा । यदि दूसरा पक्ष धर्माधर्मादि सहकारीयों को ईश्वरज्ञान से अजन्य मानेगे तो प्रथम पक्ष में प्रयुक्त कोई भी दोष नहीं होगा, किन्तु ' अचेतनोपादानत्वात्' यह हेतु यहाँ व्यभिचारी हो जायेगा क्योंकि वहाँ हेतु रहेगा किन्तु चेतनाधिष्टितत्वरूप साध्य तो नहीं रहेगा । इस कारण से धर्माधर्मादि सहकारि के संविधान को अन्य सहकारी सापेक्ष न मान कर ईश्वरज्ञानाधीन ही मानना होगा और ......इत्यादि द्रष्टव्यम् । * न्यायसूत्र ४-१-२१ न्यायवार्तिके 'तत्स्वाभाव्यात् सततप्रवृत्तिः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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