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________________ ५१० सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ नापि तज्ज्ञानमवैति 'स्थाणावहं समवेतम्' इति, तेनाऽत्मनोऽवेदनात आधारस्य च । न च तदग्रहणे 'इदं मम रूपमत्र स्थितम्' इति प्रतीतिः संभवति । न च तत् आत्मानमध्यवैति, अस्वसंवि. दितत्वाभ्युपगमात् । न चापरं तद्ग्राहकं नित्यं ज्ञानं तस्येश्वरस्यापि संभवति-येनकेन सकलं पदार्थजातमवगमयति अपरेण तु तज्ज्ञानम्-समानकालं यावद्रव्यभाविसजातीयगुरणद्वयस्यान्यत्रानुपल. ब्धेस्तत्रापि तत्कल्पनाऽसंभवात् । तत्कल्पने वाऽकर्तृ कमकुरादिकार्य किं न कल्प्येत ? करुं' ऐसी एक प्रकार की बुद्धि के अलावा और कुछ नहीं है । और उसकी बुद्धि तो नित्य ही है अतः सदा कार्योत्पत्ति का प्रसङ्ग ज्यों का त्यों रहेगा। [बुद्धि के आधाररूप में ईश्वरकल्पना निरर्थक ] दूसरी बात यह है-ईश्वर की बुद्धि को अगर नित्य, व्यापक और एक मानते हैं तो वही सकल अचेतन पदार्थों की अधिष्ठात्री भी बन जायेगी तो फिर इस बुद्धि के आधाररूप में ईश्वरात्मा की कल्पना क्यों की जाय ? यदि कहें कि-आश्रय के विना निराधार ज्ञान सम्भव नहीं है अतः उसके आधाररूप में ईश्वर की कल्पना करते हैं । तो यहाँ अनन्त ईश्वर की कल्पना आ पड़ेगी क्योंकि निराधार ईश्वर भी सम्भव नहीं है इसलिये एक ईश्वर के आधाररूप में अन्य अन्य ईश्वर की कल्पना करनी होगी। यदि कहें कि-बुद्धि गुणात्मक होने से वह निराधार नहीं हो सकती किन्तु ईश्वर द्रव्यात्मक होने से वह निराधार भी हो सकता है, अतः उसके आधाररूप में अनन्त ईश्वर की कल्पना का दोष नहीं होगा। तो यहाँ प्रश्न है कि बुद्धि में गुणात्मकता की सिद्धि कैसे होगी? [बुद्धि में गुणरूपता की सिद्धि केसे ? ] ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि 'ईश्वरात्मा में समवेत होने से वृद्धि गुणरूप है'-क्योंकि बुद्धि उसमें समवेत है या नहीं यही निश्चय नहीं है। यदि कहें कि-ईश्वर में आवेयरूप होने से बुद्धि उसमें समवेत होने का निश्चय होगा- तो यहाँ भी प्रश्न है कि ऐसा निश्चय कौन करेगा? a ईश्वर या b उसका ज्ञान ? a ईश्वर तो ऐसा निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि वह ( स्वयं ज्ञानात्मक न होने से ) अपना और अपने ज्ञान का ग्रहण हो जब नहीं कर सकता तो 'यह ज्ञान ईश्वर में समवेत है' ऐसा निश्चय होने की सम्भावना ही नहीं है। यदि कहें कि -'उसका ज्ञान उसमें समवेत होना' यही उसका ग्रहण है-तो यह उत्तर ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ अन्योन्याश्रय दोष इस प्रकार है-'यह इस में है' ऐसा ग्रहण सिद्ध होने पर उसमें ज्ञान का समवेतत्व सिद्ध होगा और उसमें ज्ञान का समवेतत्व सिद्ध होने पर ही उक्त ग्रहण की सिद्धि होगी। इस प्रकार अन्योन्याश्रय स्पष्ट है । अतः ईश्वर यह नहीं जान सकता कि-'ज्ञान मेरे में समवेत है'। जब वह इतना भी नहीं जान सकता कि मेरी आत्मा में ज्ञान है' तब सारे जगत के उपादान और सहकारी कारण आदि को वह जान पाता होगा यह श्रद्धा कौन करेगा? [ ज्ञान से समवेतत्व का निश्चय अशक्य ] b ईश्वर का ज्ञान भी यह नहीं जानता कि मैं स्थाणु (शंभु) में समवेत हूं', क्योंकि वह भी न अपने को जानता है और न अपने आधार को, और यह न जानने पर 'मेरा यह स्वरूप यहाँ अवस्थित है' ऐसी भी प्रतीति का संभव नहीं है। वह अपने को इसलिये नहीं जानता कि न्यायमत में Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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