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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वर०उ०पक्षः ४८३ मंकुरादावुपलभ्यमानं कारणमात्रमिदमनुमापयतु न पुनर्बुद्धिमत्कारणविशेषम् , तेन कार्यमात्रस्य च्याप्तेरनिश्चयात् । न च दृश्यशरीरसम्बद्धबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वं कार्यविशेषस्योपलब्धमंकुरादौ तु कार्यत्वमुपलभ्यमानं तथाभूतकर्तृ पूर्वकत्वानुमाने तत्र प्रत्यक्षविरोध इत्यदृश्यसम्बद्धशरीरकर्तृ पूर्वकस्वमनुमापयतीति वक्तु शक्यम् , तथाभ्युपगमे गोपालघटिकादावपि तत्कालादृश्याऽनलानुमापको धूमः किं न स्यात् ? न च वह्निरदृश्यो न संभवतीति वक्तु शक्यम् , नायनरश्मिष्वदृश्यस्य तस्य सद्भावाभ्युपगमात् । अथाऽव्यवहितरूपोपलब्ध्यन्यथानुपपत्त्या तस्य तथाभूतस्य परिकल्पनम् । नन्वेवं धमसद्धावान्यथाऽनुपपत्त्या तत्र तस्य तथाभूतस्य कि न परिकल्पनम् ? अपि च, यथाऽनलस्य भास्वररूपसम्बधित्वे सत्यपि तस्योदभूतत्वाऽनुभूतत्वाभ्यां दृश्यत्वाऽदृश्यत्वे परिकल्प्येते तथा प्रासादांकुरादीनां कार्यत्वे किन परिकल्प्येते न्यायस्य समानत्वाद ? तन्नादृश्यशरीरसम्बन्धात तस्यांकुरादिकार्योत्पादकत्वं युक्तम् । दृश्यशरीरसम्बन्धात तत्कतत्वे उपलभ्यानुपलम्भात कथं तस्य नाऽभाव: ? यत्तूक्तम्-'न च सर्वा कारणसामग्रयुपलब्धिलक्षणप्राप्ता' इत्यादि, तत् सत्यमेव, इदं त्वसत्यम्-ईश्वरस्य कारणत्वेऽपि न तत्स्वरूपग्रहणं प्रत्यक्षेण, अदृष्टवत कार्यद्वारेण तत्प्रतिपत्तेः इति, अष्टप्रतिपत्ताविवेश्वरप्रतिपत्तो कार्यत्वादेहेंतोनिर्दोषस्याऽसम्भवादिति प्रतिपादितत्वात् । सकते हैं यदि अंकुरादि को कारणमात्र के अभाव में उत्पन्न होने का कहा जाय, केवल कर्ता के विरह में वह दोष नहीं हो सकता। अन्यथा, गोपालघटिकादि में तत्कालीन (व्याप्तिग्रहकालीन) वद्रि न होने पर धूमाभाव की प्रसक्ति होगी। यदि कहें कि-"व्याप्तिग्रह के समय धूम में सिर्फ अग्नि का ही व्याप्तिरूप सम्बन्ध गृहीत किया है तत्कालीनाग्निसम्बन्ध नहीं गृहीत किया, अत: गोपालघटिका में धूम से तत्कालीन अग्नि के अनुमान का न होना कोई दोष नहीं है"-तो फिर यहाँ भी व्याप्तिग्रहकाल में कार्यमात्र में कारणपूर्वकत्व का ही ग्रहण किया है अत: कार्य केवल कारणपूर्वकत्व का ही अनुमान करायेगा, बुद्धिमत्कारणविशेष का नहीं करा सकता, क्योंकि उसके साथ कार्यमात्र की व्याप्ति ही अनिश्चित है। यह भी आप नहीं कह सकते कि- कार्यविशेष में दृश्य शरीर-सम्बद्ध बुद्धिमान कर्तारूप कारण उपलब्ध होता है, अत: अंकुरादि कार्य विशेष में कार्यत्व हेतु से, यद्यपि दृश्य शरीरी का प्रत्यक्षबाधित है, फिर भी अदृश्यशरीरसम्बद्ध बुद्धिमान कर्ता का अनुमान किया जा सकेगा। यह इसलिये नहीं कह सकते कि, ऐसा मानने पर, गोपाल वटिकादि में भी यह कहा जा सकेगा कि धूम हेतु से वहां दृश्य तत्कालीन अग्नि बाधित होने से अदृश्य-तत्कालीन (व्याप्तिग्रहकालीन) अग्नि का अनुमान किया जा सकता है । यह भी आप नहीं कह सकते कि 'अग्नि अदृश्य होना सम्भव नहीं है ।'-क्योंकि आप ही नेत्र रश्मि में अदृश्य अग्नि (तेज) का सद्भाव मानते हैं। [इन्द्रिय और अदृश्य तत्कालीन अग्नि की कल्पना में साम्य ] यदि कहें कि-व्यवधान के अभाव में सम्मुखवस्तुगत रूप की उपलब्धि की अन्यथा ( नेत्रेन्द्रिय के अभाव मे) उपलब्धि न घट सकने से, वहाँ दृश्य नहीं तो आखिर अदृश्य नयनरश्मि की कल्पना करनी पड़ती है-तो प्रस्तुत में भी कह सकते हैं कि गोपालघटिका में धूम का अस्तित्व अन्यथा न घट सकने से वहाँ दृश्य नहीं तो आखिर अदृश्य तत्कालीन अग्नि की कल्पना क्यों नहीं करते ? यह भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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