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________________ ४८२ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ अपि च घटादिकार्य दृश्यशरीरसम्बद्धपुरुषपूर्वकमुपलब्धम् इत्यं कुरावि कार्यमपि तथा कल्पनीयम् । अथ तत्परिकल्पने प्रत्यक्षबाधाऽनवस्थादिदोषादंकुरादिकार्यस्य कर्तृ पूर्वक्तैव विशीर्यत इति न तथाकल्पनमनन तद्रि (व?)शरणे को दोष? अथांकरादेः कार्यतानेककरणमात्राभावे समपजा. यमानस्य तस्याऽकार्यताप्रसक्तिः, न पुनः कर्तृभावे, अन्यथा गोपालघटिकादौ तत्कालाग्न्यभावे धमस्याप्यभावप्रसक्तिः, न पुनः कर्तृ भावेनानलपूर्वकत्वं व्याप्तिग्रहणकाले धमस्य प्रतिपन्नम् , तेन ततस्तत्र तत्कारणमनलानुमानमा नन्वेवं कार्यमानं कारणमात्रपूर्वकत्वेन व्याप्तं व्याप्तिग्रहणकाले प्रतिपन्न [ ऐन्द्रियक ज्ञान सर्वविषयक न होने में युक्ति ] "इन्द्रिय अर्थ के संनिकर्ष से उत्पन्न अव्यपदेश्य अव्यभिचारी व्यवसायात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है।" यहाँ सामग्री, फल और स्वरूप विशेषण के तीनों पक्ष में इन्द्रिय-अर्थ के संनिकर्ष से उत्पन्न ज्ञान में ही प्रत्यक्षप्रामाण्य का आपने स्वीकार किया है। तदुपरांत, 'प्रमाण से अर्थ गृहीत होने पर प्रमाण अर्थवत सार्थक होता है' इस वात्स्यायन भाष्य वाक्य का यह अर्थ प्रतिपादित किया गया है कि-'प्रमाता और प्रमेय भिन्न होता हुआ प्रमितिस्वरूप फल में साधकतम होने के कारण अर्थ सहकारिरूप प्रमाण है।'-अर्थ इस प्रकार सहकारी होता है कि फलोत्पादन में प्रमाण जब सक्रिय होता है तब फलजनक होने से अर्थ भी उसको सहायताप्रदान करता है। क्योंकि-'साथ में रह कर कार्य को करना' यह सहकारी शब्द की व्युत्पत्ति है। इससे यह फलित होता है कि अतीत और अनागत पदार्थ असंनिहित होने से प्रमितिस्वरूपफलोत्पादन में उसका कोई योगदान नहीं हो सकता। जो प्रमिति को उत्पन्न न करे वह अर्थ भी नहीं कहा जा सकता और 'प्रमिति को उत्पन्न नहीं करता है उसमें प्रमाणविषयता भी नहीं मान सकेंगे। इस लिये ईश्वर को इन्द्रियसहितशरीर से उत्पन्न प्रत्यक्ष जानवाला मानेंगे तो असंनिहित अतीत-अनागत पदार्थों के ज्ञान के अभाव में ईश्वर को सकल-कार्यकारणसम्बन्धी ज्ञान होने का सम्भव नहीं रहता। फलतः, ईश्वर में जगत्कर्तृत्व मानने के लिये आप शरीरसंबन्ध को मानने गये तो उल्टा उसमें अकर्तृत्व ही प्रसक्त हुआ। निष्कर्ष, अदृश्यशरीर का ईश्वर में सम्बन्ध मानना भी अयुक्त है। [ अंकुरादि दृश्यशरीरसम्बद्ध पुरुष से ही होने की आपत्ति ] दूसरी बात यह है कि-घटादि कार्य सर्वत्र दृश्य शरीर से सम्बद्ध पुरुषमूलक ही दिखता है अतः अंकुरादिकार्य को भी दृश्यदेहमूलक ही मानना होगा। यदि कहें कि-वैसा मानने में तो प्रत्यक्ष से बाध है और अनवस्थादि दोष है अत: अंकुरादिकार्य में कत मूलकता ही उच्छिन्न हो जाती है। इसलिये वैसा नहीं मानेंगे ।-तो हम पूछते हैं कि कर्तृ मूलकता के उच्छेद में क्या दोष है ? यदि अंकुरादि में कार्यता के भंग को दोष कहा जाय तो वह ठीक नहीं, वहाँ कार्यताभंग तो तभी कह * पुष्पिकागतपाठशुद्धयेऽपेक्ष्यते शुद्धा प्रतिः । तदभावे संगत्यर्थ त्वित्थं पाठानुमानम्-“अथांकुरादेरकार्यता, न, कारणमात्राभावे समुपजायमानस्य तस्याऽकार्यताप्रसक्तिः न पून: कत्र भावे, अन्यथा गोपालघटिकादौ तत्कालाग्न्यभावे धूमस्याप्यभावप्रसक्तिः । न पुनः तत्कालानलपूर्वकत्व व्याप्ति ग्रहणकाले धूमस्य प्रतिपन्नम् तेन न ततस्तत्र तत्कालान. लानुमानम्"-एतत्पाठानुसारेण व्याख्यातमत्रेति विभावनीयं सुधीभिः । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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