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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
यत्तुक्तम्-'स्थावरेषु कर्ऋग्रहणं कर्बभावाव आहोस्विविद्यमानत्वेऽपि तस्याऽग्रहणमनुपलभ्यस्वभावत्वेन, एवं संदिग्धव्यतिरिक्तत्वे न कश्चिद्धेतुर्गमकः धूमादेरपि सकलव्यक्त्याक्षेपेण व्याप्त्युपलम्भकाले न सकला वह्निव्यक्तयो दृश्या'.... इत्यादि यावत....'सर्वमुत्पत्तिमत् कर्तृ करणपूर्वकं दृष्टम् , तस्य सकृदपि तथादर्शनात तज्जन्यतास्वभावः, तस्यैवं स्वभावनिश्चितावन्यतमाभावेऽपि कथं स्वभावः'....इति, तदप्यसंगतम्-यतो यादृग्भूतमेव घटादिकार्य तत्पूर्वकमुपलब्धं तस्य सकृदपि तथादर्शनात तज्जन्यः स्वभावो व्यवस्थित इति तदन्यतमाभावेऽपि तस्य भावे सकृदपि ततस्तद्भावो न स्यादिति युक्तं च वक्तुम् , न पुनस्तद्विलक्षणं भूरुहादिकं कर्तृ करणपूर्वकं कदाचनाप्युपलब्धम् किन्तु कारणमात्रपूर्वकम् , प्रतस्तद्धा (तदमा)वे तस्य भवतोऽहेतुकत्वप्राप्तेस्तदेव तद् गमयतीत्यसकृदावेदितम्।
दिखाईये कि अग्नि भास्वर शुक्ल रूपवाला मान कर भी उसके रूप को उद्भूत और अनुभूत दो प्रकार का मानकर अग्नि में दृश्यत्व और अदृश्यत्व की कल्पना कर लेते हो उसी प्रकार प्रासादअंकुरादि कार्यों में भी कर्तृजन्य और कर्तृ अजन्य द्वैविध्य की कल्पना क्यों नहीं करते जब की युक्ति तो दोनों जगह तुल्य ही है ? निष्कर्ष, अदृश्यशरीर के योग से ईश्वर में अंकुरादि कार्यजनकता को मानना अयुक्त है । यदि दृश्यशरीर के योग से ईश्वर में कर्तृत्व घटाया जाय तब तो उपलब्धियोग्य होने पर भी उसकी उपलब्धि न होने से उसका अभाव क्यों नहीं सिद्ध होगा ? !
___ यह जो कहा था-[ पृ. ३९१-६ ] संपूर्ण कारणसामग्री कभी उपलब्धिलक्षणप्राप्त नहीं होती इत्यादि....वह तो ठीक है, किन्तु यह जो कहा है-ईश्वर कारण होने पर भी प्रत्यक्ष से उसके स्वरूप का उपलम्भ नहीं होता किन्तु अदृष्ट की तरह उसके कार्य से ही उसका अवबोध होता है [प. ३६१-८] -यह तो गलत ही कहा है। कारण, अदृष्ट के अवबोध में जैसे कार्यवैचित्र्यादि निर्दोष हेतु है वैसे ईश्वर के बोधनार्थ प्रयुक्त कार्यत्वादि हेतु निर्दोष नहीं है-इस बात को पहले हम दिखा चुके हैं।
[ कत-करणपूर्वकत्व सभी कार्य में सिद्ध नहीं है। यह जो आपने....(६६२-१) "स्थावरों में कर्ता का अग्रहण कर्ता के न होने से है या कर्ता विद्यमान होने पर भी उसका स्वभाव उपलब्धियोग्य न होने से वह गृहीत नहीं होता इस प्रकार यदि यहाँ संदिग्धव्यतिरेक (व्यभिचार) की शंका करेंगे तो कोई भी हेतु साध्य का गमक नहीं बचेगा क्योंकि सकल व्यक्ति का अन्तर्भाव कर के धूमादि में अग्निनिरूपित व्याप्तिग्रहण करते समय वे सब अग्निव्यक्ति दृश्य तो नहीं है" इत्यादि से लेकर...."उत्पन्न होने वाला सब कुछ कर्तृ-करणपूर्वक ही दिखता है अतः एक बार भी उसकी उससे (कर्तृकरणादि से) उत्पत्ति को देखने पर उसमें तज्जन्यता स्वभाव आ गया, ऐसा स्वभाव निश्चित हो जाने पर कर्तादि में से किसी एक के अभाव में कार्य का सद्भाव कैसे हो सकेगा?"....इत्यादि, (३९३-२) यहाँ तक जो कहा था वह सब गलत है । कारण, जिस प्रकार का (कृतबुद्धि उत्पादक) घटादि कार्य कर्त-करणादिपूर्वक उपलब्ध है वह कार्य एक ब
दे से उत्पन्न दिखायी देने पर उसमें तज्जन्यतास्वभाव सिद्ध हो जाता है अत: कर्त आदि एक के अभाव में भी यदि वह उत्पन्न हो जाय तब तो उस प्रकार के कार्य में तज्जन्यता स्वभाव भंग होने की आपत्ति देना ठीक है। किन्त, उस प्रकार के कार्य से विलक्षण अरण्य वक्षादि कार्य कहीं भी कर्तृ-करणपूर्वक होता हुआ नहीं देखा गया, सिर्फ कारणपूर्वक ही देखा गया है, ( कर्तृ पूर्वक नहीं देखा गया) अतः यदि वृक्षादि कार्य, कारण के अभाव में उत्पन्न होगा तो वह निर्हेतुक हो जाने की
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