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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
अथ कार्यत्वस्य क्षित्यादौ बुद्धिमत्कारणत्वाभावेऽभावप्रसंगाद् विलक्षणव्यक्त्याश्रितस्यापि तत्सामान्यस्य तत्र सिद्धिर्भवत्येव, यथा महानसविलक्षणगिरिशिखराद्याधारस्याग्निसामान्यस्य धूमाव प्रसिद्धिः। स्यादेतत् यद्यधूमव्यावृत्तं धूममात्रमनग्निव्यावृत्तेनाऽग्निना व्याप्तं यथा प्रत्यक्षानुपलम्भलक्षणात प्रमाणात प्रसिद्ध तथाऽत्राप्यबुद्धिमत्कारणव्यावृत्तन बुद्धिमत्कारणत्वमात्रणाऽकायव्यावृत्तस्य कार्यमात्रस्य कुतश्चित् प्रमाणाद् व्याप्तिः सर्वोपसंहारेण निश्चिता स्यात् , यावता सैव न सिद्धा।
___ अथ यथा कार्यधर्मानुवृत्तेः कार्य हुतभुजो धूमः, स तदभावेऽपि भवन हेतुमत्तां विलंघयेत् इति नाग्निव्यतिरेकेण धूमस्य सद्भाव इति सर्वोपसंहारेण व्याप्तिसिद्धिस्तथाऽत्रापि भूधरादि कार्यधर्मानुवृत्तितो बुद्धिमत्कारणकार्यम् , तदभावे तद् भवद् निहतुकं स्यादिति सर्वोपसंहारेण व्याप्तिसिद्धिः । ननु घटादिलक्षणः कार्यविशेषो बुद्धिमदन्वय-व्यतिरेकानुविधायो य उपलभ्यमानस्तत्समानेषु पदार्थेष्व
त्वादि विशिष्ट प्रकार के व्यक्तिविशेषरूप आधार ही सिद्ध होगा, क्योंकि विशेष विनिर्मुक्त केवल सामान्य का सम्भव ही नहीं है । जो अनित्यज्ञान वाला देहधारी है वह क्षिति आदि बड़े-बड़े पदार्थों के निर्माण में समर्थ न होने से घटादि के कर्तारूप में उपलब्ध जो अनित्यबद्धिमत्ता आदि वाला व्यक्ति विशेष उसमें क्षिति आदि में सिद्ध बुद्धिमत्कारणत्वरूप सामान्य की आश्रयता सम्भवारूढ नहीं है ।
उत्तरपक्षी:-तब तो इसका मतलब यह हुआ कि घटादि में जैसा सामान्याश्रित व्यक्तिस्वरूप ( अनित्यबुद्धिमत्ता आदि ) गृहीत किया है उसका क्षिति आदि में सम्भव नहीं है और तद्भिन्न व्यक्तिस्वरूप ( नित्यबुद्धिमत्ता आदि ) तो उपरोक्त सामान्य के आश्रयरूप में कहीं भी प्रसिद्ध नहीं है और निराश्रित सामान्य का तो सम्भव ही नहीं है-इस प्रकार तो क्षिति आदि में किसी भी प्रकार के ( सामान्यतः ) बुद्धिमत्कारणत्व की सिद्धि नहीं होगी। ऐसा कहीं भी नहीं होता कि गोत्वसामान्य के आधार रूप में किसी भी खण्डमुंडादिव्यक्ति विशेष का कहीं सम्भव न लगता हो तब तद्भिन्नस्वरूप महिषीआदिव्यक्ति को ही गोत्व का आधार किसी हेतु से सिद्ध किया जाय !
[विलक्षणव्यक्ति-आश्रित बुद्धिमत्कारणत्वसामान्य की सिद्धि अशक्य ] नैयायिकः-यदि क्षिति आदि में बुद्धिमत्कारणता का अभाव प्रसंग दिखायेंगे तब तो कार्यत्व
भाव प्रसक्त होगा, कार्यत्व तो वहां प्रसिद्ध ही है अतः अव्यापकादि से विलक्षण अर्थात व्यापकादिव्यक्ति में आश्रित ही बद्धिमत्कारणत्वसामान्य की सिद्धि माननी पडेगी। उदा० धम से पर्वत में जो अग्नि सामान्य सिद्ध होगा वह पाकशाला के अग्नि से विलक्षण पर्वतीय आश्रित रूप से ही सिद्ध होता है ।
उत्तरपक्षी:-धूमादि के जैसे अगर यहाँ भी होता तब तो आपकी बात ठीक मानते, किन्तु ऐसा है नहीं। देखिये-'अधूम से विलक्षण धूमसामान्य यह अनग्नि से विलक्षण अग्नि से व्याप्त है' यह तो प्रत्यक्ष अनुपलम्भ यानी अन्वय-व्यतिरेक ग्रहरूप प्रमाण से सिद्ध है। यदि ऐसे प्रस्तुत में अबुद्धिमत्कारण से व्यावृत्त बुद्धिमत्कारणत्वसामान्य के साथ अकार्यविलक्षणकार्यत्वसामान्य की व्याप्ति किसी प्रमाण से सर्वदेश-कालान्तर्भाव से सिद्ध होती तब तो नैयायिक की बात ठीक थी, किन्तु वही अद्यापि असिद्ध है । जब बुद्धिमत्कारणत्वसामान्य और कार्यत्व के बीच व्याप्ति ही असिद्ध है तब कैसे बद्धिमत्कारणत्वसामान्य की व्यापकादिव्यक्तिविशेष-आश्रित रूप में सिद्धि मानी जाय ? !
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