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प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः
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अपि च यद्यत्र व्यापकनित्यकबुद्धिमत्कारणं क्षित्यादेः कारणत्वेनाऽभिप्रेतं कार्यत्वलक्षणाद्धेतोः, तथा सति घटादौ दृष्टान्तामणि तत्पूर्वकत्वेन कार्यत्वस्याऽनिश्चयात साध्यविकलो दृष्टान्तः विरुनश्च हेतुः स्यात , अनित्यबद्धयाधाराऽव्यापकाऽनेककर्तृ पूर्वकत्वेन व्याप्तस्य कार्यत्वस्य घटादौ निश्चयात् । अथ बुद्धिमत्कारणत्वमानं सास्यत्वेनाऽभिप्रेतं क्षित्यादौ तहि नित्यबुद्ध्याधार-व्यापककर्तृ पूर्वकत्वलक्षणस्य विशेषस्य क्षित्यादावसिद्धिनेश्वरसिद्धिः । अथ बुद्धिमत्कारणत्वसामान्यमेव भित्यादौ साध्यते, तच्च पक्षधर्मताबलाद् विशिष्ट विशेषाधारं सिध्यति निविशेषस्य सामान्यस्याऽसम्भवात् , अनित्यज्ञानवत शरीरिणः क्षित्यादिविनिर्माणसामर्थ्यरहितत्वेन घटादावपलब्धस्य विशेषस्य बुद्धिमत्कारणत्वसामान्याधारस्य तत्राऽसम्भवात् । नन्वेवं सामान्याश्रयत्वेन यद् घटादौ व्यक्तिस्वरूपं प्रतिपन्नं तस्य क्षित्यादावसम्भवात अन्यस्य च व्यक्तिस्वरूपस्य विवक्षितसामान्याश्रयत्वेनाऽप्रसिद्धत्वात् , निराधारस्य च सामान्यस्याऽसम्भवात , बुद्धिमत्कारणत्वसामान्यस्यैव क्षित्यादौ न सिद्धिः स्यात् । न हि क्वचिद् गोत्वाधारस्य खण्डादिव्यक्तिविशेषस्याऽसम्भवेऽन्यरूपमहिष्यादिष्यक्तिसमाश्रितं गोत्वं कुतश्चिद हेतोः सिद्धिमासादयति ।
कार्यत्व का विकल्प किया जाय तो ऐसा सभी अनुमान में हो सकने से अनुमानमात्र के उच्छेद की आपत्ति का सम्भव है अतः उसे कार्यसम असद् उत्तर कहा जा सकता है, किन्तु प्रस्तुत में क्षिति आदि में बुद्धिमत्कारणत्व साध्य की सिद्धि के लिये प्रयुक्त कार्यत्वसामान्य, हेतु ही नहीं बन सकता है क्योंकि यहाँ व्याप्ति के वैपरीत्य का उद्भावन्न करने पर उसका निवारक कोई बाधक प्रमाण मौजूद नहीं अतः यहाँ कार्यत्वसामान्य हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति संदिग्ध हो जाने से हेतु में अनैकान्तिकता दोष लगता है । जिस कार्यत्व को देख कर अदृश्योत्पत्तिवाले जीर्णकूप-प्रासादादि में भी यह किसी का बनाया हुआ है' ऐसी कृतबुद्धि तुरन्त ही हो जाती है ऐसे कार्यत्व में ही बुद्धिमत्कारणता के साथ देवकुलादि में व्याप्ति गृहीत है, कार्यत्वसामान्य मे व्याप्ति गृहीत नहीं है । और कृतबुद्धिजनक कार्यत्व हेतु क्षिति आदि में तो असिद्ध है यह कह ही दिया है।
[व्यापक, नित्यबुद्धिवाला, एक कर्ता असिद्ध ] दूसरी बात यह है कि आप क्षिति आदि के कारण रूप में व्यापक, एक, एवं नित्य बुद्धिमान कर्ता कार्यत्वरूप हेतु से सिद्ध करना चाहते हैं। कि तु घटादि दृष्टान्तधर्मी का कार्यत्व व्यापकादिस्वरूपकर्तृमूलक है यह निश्चय ही अशक्य है, अत: घटादि दृष्टान्त साध्यशून्य ठहरा । हेतु भी अब विरुद्ध हुआ, क्योंकि घटादि में व्यापकादि से विरुद्ध यानी अध्यापक अनित्य बुद्धिमत्अनेककर्तृ पूर्वकत्व के साथ ही व्याप्ति वाले कार्यत्व का निश्चय होता है ।
नैयायिक:-पृथ्वी आदि में हमारा साध्य केवल बुद्धिमत्कारणत्व ही है।
उत्तरपक्षी:-तब तो क्षिति आदि में नित्यबुद्धिवाले, व्यापक, एक कर्ता से जन्यत्व-यह विशेष सिद्ध नहीं होगा, फलत: वैसा ईश्वर भी सिद्ध नहीं होगा।
[पक्षधर्मता के बल से विशेष व्यक्ति की सिद्धि दुष्कर ] नैयायिक:-क्षिति आदि में कार्यत्वहेतु से तो केवल सामान्यतः बुद्धिमत्कारणता ही सिद्ध की जाती है । तथापि ईश्वर-असिद्धि नहीं होगी क्योंकि पक्षधर्मता के बल से ही बुद्धिमत्कारणत्व, व्यापक
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