________________
४२४
सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१
'सः' इत्याकारस्य 'प्रयम्' इत्याकारेऽनुप्रविष्टत्वादभाव इति 'अयम्' इत्याकार एव केवलः प्राप्त इति कुतः 'सोऽयम्' इत्येका प्रत्यभिज्ञा ? अथ 'अयम्' इत्याकारः सः' इत्येतस्मिन्ननुप्रविष्टस्तदा सः' इत्येव प्राप्तो न 'अयम्' इत्यपि, इति कथमेका प्रत्यभिज्ञा ? अथ ‘स एव'-'अयम्' इत्याकारौ परस्पराऽननुप्रविष्टौ प्रतिभातः तथापि भिन्नाकारौ भिन्नविषयौ च द्वौ प्रत्ययाविति कथमेकार्था एका प्रत्यभिज्ञा प्रतिभासभेदस्य विषयभेदध्यवस्थापकत्वात् ? न च प्रतिभासभेवेऽपि विषयाऽभेदः, प्रतिभासाऽभेदव्यतिरेकेण विषयाऽभेदव्यवस्थायां प्रमाणं विना प्रमेयाभ्युपगमः स्यात् , तथा च सर्व सर्वस्य सिध्येत् । तन्न प्रत्यभिज्ञातोऽप्यवयव्येकत्वग्रहः । अनुमानस्य च अवयविस्वरूपग्राहकस्य प्रत्यक्षनिषेधे तत्पूर्वकस्य निषेधः कृत एव । सामान्यतोदृष्टस्य चावयविप्रतिषेधप्रस्तावे निषेधो विधास्यत इत्यास्तां तावत।
अथ 'एको घटः' इति द्रव्यप्रतीतिरस्ति तदवयवव्यतिरेकिणी तत् कथमभावोऽवयविनः ? न, घटावसायेऽपि तदवयवाध्यवसायः नामोल्लेखश्चाध्यवसीयते नाववि द्रव्यम् , वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यस्य तद्रूपस्य केनचिदप्यननुभवात् । वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं चा(?ना) वयविस्वरूपमभ्युपगम्यते । न च अपरोक्ष है, परोक्षापरोक्ष आकार परस्पर विरुद्ध होने से ये दो ज्ञान एकस्वभाववाले नहीं हो सकते । (यद्यपि एक प्रत्यभिज्ञाज्ञान का पहले समर्थन किया है, तथापि यहाँ एकान्तगभित एकत्व का निराकरण करने हेतु बौद्धमत का समर्थन किया जा रहा है)
पूर्वपक्षीः स एवाऽयम्' इस प्रतोति में तदाकार (स:) और इदमाकार ( अयम् ) दोनों एक ही अधिकरण के धर्म हो ऐसा अवबोध होता है अतः ये एक ही प्रत्यभिज्ञारूप ज्ञान को सिद्ध करते हैं।
उत्तरपक्षी:-एकाधिकरणता का अध्यवसाय होने पर भी दूसरी ओर आकारभेद स्पष्ट होने से प्रत्यभिज्ञा में एकत्व नहीं घट सकता, जैसे कि पृथक् पृथक् होने वाले दर्शन और स्मरण ये दो ज्ञान एकरूप नहीं होते । दूसरी जगह भी आकारभेद से ही वस्तुभेद को माना जाता है, यदि वह आकारभेद प्रत्यभिज्ञा में भी मौजूद है तो उसका एकत्व कैसे हो सकता है ?
तदुपरांत, a 'सः' ऐसा आकार 'अयम्' ऐसे आकार में अनुप्रविष्ट-सम्मिलित हो कर भासता है ? b या अनुप्रविष्ट हुए विना हो ? a यदि अनुप्रविष्ट हो कर भासता है तब तो 'सः' ऐसा आकार 'अयम्' आकार में विलीन हो जोने से शून्य ही हो गया, शेष केवल 'अयम्' ऐसा हो आकार बचा तो फिर 'सोऽयम' ऐसी प्रत्यभिज्ञा एक कैसे होगी? अथवा, 'अयम्' ऐसा आकार 'सः' ऐसे आकार में विलीन हो गया तो केवल 'सः' ऐसा आकार ही शेष बचा, 'अयम्' आकार तो नहीं बचा, फिर प्रत्यभिज्ञा एक कैसे ? b यदि दूसरे पक्ष में कहा जाय कि-'स एव' और 'अयम्' ये दोनों आकार अन्योन्य अमिलितरूप में ही भासित होते हैं-तो भी यह प्रश्न तो रहेगा कि जब दो ज्ञान के भिन्न भिन्न ही आकार और विषय हैं तब प्रत्यभिज्ञा एक और समान विषयक कैसे हो सकती है, जब कि विषयभेद का व्यवस्थापक प्रतिभासभेद मौजूद है ? प्रतिभास भिन्न होने पर भी विषय का भेद न हो ऐसा नहीं हो सकता । यदि प्रतिभास का अभेद न होने पर भी विषयों के अभेद का अंगीकार करेंगे तब तो उसका मतलब यह हुआ कि प्रमाण के अभाव में भी प्रमेय माना जा सकता है, फिर तो सभी के लिये सब कुछ सिद्ध हो जायेगा। निष्कर्ष : - प्रत्यभिज्ञा स्वयं एकज्ञानात्मक न होने से, उससे अवयवी के एकत्व का ग्रहण शक्य नहीं है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org