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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उ० ४२३ अथ अर्वाग्भागदर्शने सत्युत्तरकालं परभागदर्शनेऽनन्तरस्मरणसहकारीन्द्रियजनितं स एवायम्' इति प्रत्यभिज्ञाज्ञानमध्यक्षमवयविनः पूर्वापरावयवव्याप्तिग्राहकम, तदयुक्तम्-प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्यैतद्विषयस्य प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः। अक्षानुसारि हि प्रत्यक्षम् , न चाक्षाणामर्वाक्-परभागभाव्यवयवग्रहणे व्यापारः सम्भवति. व्यवहिते तेषां व्यापाराऽसम्भवाव , सम्भवे वाऽतिव्यवहितेऽपि मेरुपृष्ठादौ व्यापारः स्यात् । तन्न तदनुसारिणोऽध्यक्षरूपस्य प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्य तत्र व्यापारः। न च स्मरणसहायस्या पोन्द्रियस्याऽविषये व्यापारः सम्भवति । यद् यस्याऽविषयः न तत्तत्र स्मरणसहायमपि प्रवर्त्तते यथा परिमलस्मरणसहायमपि लोचनं गन्धादौ । अविषयश्च व्यवहितोऽक्षाणां परभागभाव्यवयवसम्बन्धित्वलक्षणोऽवयविनः स्वभाव इति नाक्षजस्य प्रत्यभिज्ञाज्ञानस्यावयविस्वरूप ग्राहकत्वम् । न च स एवायम' इति प्रतीतिरेका 'सः' इति स्मतेः रूपम अयम्' इति तु दृशः स्वरूपम् । तत् परोक्षाऽपरोक्षाकारत्वाद् नैकस्वभावावेतौ प्रत्ययौ। अथ 'स एवायम्' इत्येकाधिकरणतया एतौ प्रतिभात इत्येकं प्रत्यभिज्ञाज्ञानम् । न, आकारभेदे सति दर्शन-स्मरणयोरिव सामानाधिकरण्याध्यवसायेऽप्येकत्वानुपपत्तेः । अन्यत्राप्याकारभेद एव भेदः, स चात्रापि विद्यत इति कथमेकत्वम् ? किं च, 'सः' इत्याकारः अयम्' इत्याकारानुप्रवेशेन प्रतिभाति आहोस्विद् अननुप्रवेशेनेति ? यदि अनुप्रवेशेन, से आत्मा अवयवी का ग्राहक बन बैठेगा । दर्शन की सहायता से ही आत्मा किसी का भी ग्राहक बन सकता है, वह दर्शन यहाँ कोई भी प्रत्यक्षादि-प्रमाणरूप होने का सम्भव नहीं है जिससे कि अवयवों में अवयवी की व्याप्ति का ग्रह हो-यह तो कह चुके हैं। [प्रत्यभिज्ञा ज्ञान से अवयवी की सिद्धि अशक्य ] पूर्वपक्ष:-अग्रभाग को देखने के बाद, उत्तरकाल में पृष्ठभाग का दर्शन होने पर तदनन्तरभाविस्मरणसहकृतइन्द्रिय से जन्य 'यह वही है' ऐसा प्रत्यभिज्ञासंज्ञक प्रत्यक्षज्ञान अवयवी की अग्नपृष्ठभाग में व्याप्ति को ग्रहण करेगा। उत्तरपक्षी:-यह कथन अयुक्त है, क्योंकि व्याप्तिविषयक प्रत्यभिज्ञाज्ञान प्रत्यक्षरूप नहीं घट सकता । प्रत्यक्ष तो इन्द्रियानुसारी होता है, अग्र-पृष्ठभागवर्ती अवयवों के ग्रहण में इन्द्रियों का व्यापार ही सम्भव नहीं है, क्योंकि व्यवहित वस्तु के ग्रहण में इन्द्रियों का व्यापार असम्भव है। यदि वैसा सम्भव होता तब तो अतिशय व्यवहित मेरु के पृष्ठ देशादि के ग्रहण में भी इन्द्रियाँ सक्रिय बन जायेगी । तात्पर्य, इन्द्रियानुसारी प्रत्यक्षात्मक प्रत्यभिज्ञा ज्ञान का व्यवहित अवयवी के ग्रहण में सामर्थ्य नहीं है। ___जो अपना विषय नहीं है उसमें स्मरण की सहायता से भी इन्द्रियों का व्यापार सम्भव नहीं है । जो जिस का विषय ही नहीं उसमें वह स्मरण की सहायता से भी प्रवृत्ति नहीं कर सकता, जैसेः परिमल के स्मरण की सहायता से भी नेत्रेन्द्रिय गन्धादि के ग्रहण में प्रवृत्त नहीं होती । पृष्ठभागवर्ती अवयवों से सम्बद्धता रूप अवयवि का स्वभाव व्यवहित होने से इन्द्रियों का विषय नहीं है, अत: स्मरणसहकृत इन्द्रियजन्य प्रत्यभिज्ञा ज्ञान अवयवी के स्वरूप का ग्राहक नहीं हो सकता। ['स एव अयम्' यह प्रतीति एक नहीं है ] दूसरी बात, 'स एवायम्-यह वही है' यह प्रत्यभिज्ञा कोई एकज्ञानरूप नहीं है, 'स:' ऐसा उल्लेख स्मृति का रूप है और 'अयम्' यह उल्लेख दर्शन का स्वरूप है । एक परोक्ष है और दूसरा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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