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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृ त्वे उ०पक्षः ४२५ तेन रूपेण कल्पनाज्ञानेऽपि तव प्रतिभाति, न चान्याकारः प्रतिभासोऽन्याकारस्य वस्तुस्वरूपस्य व्यवस्थापकः, अन्यथा नीलप्रतिभासः पीतस्य व्यवस्थापकः स्यादिति न वस्तुव्यवस्था स्यात् । तस्माद् न कल्पनोल्लिख्यमानवपुरप्यवयवी बहिरस्ति, केवलमनादिरयमेकव्यवहारो मिथ्यार्थः । न च व्यवहारमात्राद् बहिरेक वस्तु सिध्यति, 'नीलादीनां स्वभावः' इत्यत्रापि व्यवहाराभेदादेकताप्राप्तेः स्वभावस्य। अथ तत्र प्रतिनीलादिस्वभावं दर्शनभेदादेकत्वं बाध्यत इहापि तहि वहीरूपस्योधिोमध्यादिनिर्भासस्य भेदादेकता तन्वादीनां प्रतिदलतु । तनावयविरूपो बाह्योऽर्थोऽस्ति । __ अथ "प्रवयविनोऽभावे तदवयवानामपि पाण्यादीनां दिग्भेदादिविरुद्धधर्माध्यासाद भेदः, तदवयवानामप्यंगुल्यादीनां तत एव भेदाव तादत भेदो यावत परमाणवः, तेषां च स्थूलप्रतिभासविषय जब एक अवयवी स्वरूप के ग्राहकरूप में प्रत्यक्ष निषिद्ध हो गया तो प्रत्यक्षमूलक प्रवृत्त होने वाले अनुमान का तो निषेध हो ही जाता है । रह जाती है सामान्यतोदृष्ट अनुमान की बात, वह भी अवयवी के प्रति रध के प्रकरण में निषिद्ध हो जायगा, यहाँ अब रहने दो। [ ‘एको घटः' प्रतीति से स्थूल द्रव्य की सिद्धि अशक्य ] पूर्वपक्षी:-'एको घट:=एक घट है' ऐसी, उसके अवयवों से भिन्नता का उल्लेख करती हुयी घटादि द्रव्य की प्रतीति सभी को होती है फिर अवयवी का अभाव कसे ? उत्तरपक्षीः-घट विषयक बोध में भी द्रव्य के अवयवों का अध्यवसाय और उसके नाम का ('घट' आदि का) उल्लेख ही अनुभव में आता है, तद्भिन्न कोई अवयवी द्रव्य का स्वतन्त्रानुभव नहीं होता । जब भी घट पटादि द्रव्य का बाध होता है तब उसका वर्णाकृति-अक्षराकार से शून्य द्रव्य के किसी भी रूप का किसी को भी अनुभव नहीं होता । आप अवयवी के स्वरूप को वर्णाकृति-अक्षराकार से शून्य मानते हो । उक्त आकारों से शून्य केवल अवयवित्वरूप से कल्पनात्मक ज्ञान में भी अवयवी स्फरित नहीं होता। एक आकार वाला प्रतिभास किसी अन्य आकार वाली वस्तु के स्वरूप की व्यवस्था नहीं कर सकता । यदि ऐसा हो सकता तब तो नील प्रतिभास भी पीतवस्तू का व्यवस्थापक बन सकेगा। फिर कोई नियत रूप से वस्तु की व्यवस्था ही न हो सकेगी। निष्कर्ष यही आया कि कदाचित् कल्पना से अवयवी का उल्लेख किया भी जाय फिर भी वैसा अवयवी बाहर तो नहीं है । तब जो अनादि काल से 'एक घट है' ऐसा एकत्व का व्यवहार चला आता है वह अर्थशून्य यानी मिथ्या है । केवल व्यवहार के बल से बाह्य लोक में किसी वस्तु की सिद्धि नहीं हो जाती। व्यवहार तो 'नीलादि का स्वभाव' इस प्रकार भी होता है, यहाँ नील-पीतादि सभी का भिन्न भिन्न स्वभाव होने पर भी उन स्वभावों में अभेद का व्यवहार उक्त रीति से लोक में होता है, यदि व्यवहार से ही वस्तु सिद्ध मानी जाती तब तो उक्त व्यवहार से नील-पीतादि के स्वभावों में भी एकता की आपत्ति हो जायेगी। पूर्वपक्षी:-वहाँ तो प्रत्येक नील.पीतादि स्वभावों का भिन्न भिन्न दर्शन भी होता है, उनसे स्वभावों की एकता का व्यवहार बाधित हो जाता है, अत: एकता को प्रमाण सिद्ध नहीं मानेंगे। उत्तरपक्षी:- तो यहाँ भी बाह्यलोक में वस्तु के ऊर्ध्व, अधः, मध्यादि प्रत्येक भागों का भिन्नभिन्न दर्शन होता है उनसे देहादि (अवयवी) की एकता बाधित हो जायेगी। फलतः यही सिद्ध होगा कि अवयवीस्वरूप कोई भी बाह्यपदार्थ प्रमाणसिद्ध नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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