SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९४ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ एतेनैतदपि पराकृतं यदाहुरेके-"अचेतनः कथं भावस्तदिच्छामनुवर्तते ?" [ ] । अचेतनस्य शरीरादेरात्मेच्छानुत्तित्वदर्शनात् । न चाऽचेतनस्य तदिच्छाननुत्तिनोऽपि प्रयत्नप्रेर्यत्वं परिहार इति वक्तव्यम , यत ईश्वरस्यापि प्रयत्नसद्धावेन काचित क्षतिः। न च 'शरीराभावात कथं प्रयत्नः' इति वक्तुं युक्तम् , शरीरान्तराभावेऽपि शरीरस्य प्रयत्नप्रेर्यत्वदर्शनात् । तत् कर्तुं : शरीराभावादकृष्टो. त्पत्तिषु स्थावरे वग्रहणम् , न तत्राऽदर्शनेन हेतोर्व्यभिचारः । येऽपि प्रत्यक्षानुपलम्भसाधनं कार्य-कारणभावम् आहः तेषामपि कस्यचित् कार्यकारणभावस्य तत्साधनत्वे यथेन्द्रियाणामहष्टस्य च तो विना कारणत्वसिद्धिस्तथेश्वरस्यापि । अतो न व्याप्त्यभावः । अत एव न सत्प्रतिपक्षताऽपि, नैकस्मिन् साध्यान्विते हेतौ स्थिते द्वितीयस्य तथाविधस्य तत्रावकाशः, वस्तुनो द्वरूप्याऽसम्भवात् । नापि बाधः, अबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वस्य प्रमाणेनाऽग्रहणात् , साध्याभावे हेतोरभावः स्वसाध्यव्याप्तत्वादेव सिद्धः। नापि धर्यसिद्धता, कार्य-कारण पथिव्यादेर्भतग्रामस्य च प्रमाणेन सिद्धत्वात । तदाश्रयत्वेन हेतोर्यथा प्रमाणेनोपलम्भस्तथा पूर्व प्रशितम् । अतोऽस्मादीश्वरावगमे न तत्सिद्धौ प्रमाणाभावः। भी आत्मा कार्य कर सकता है, वह कार्य चाहे स्वशरीरवर्ती हो या परशरीरवर्ती, इससे कोई मतलब नहीं। [जडवस्तु में इच्छानुवर्तित्व की प्रसिद्धि ] अशरीरी कर्ता सम्भव है इस उक्ति से इस प्रश्न का भी निराकरण हो जाता है जो किसी ने कहा है-पाषाणादि जड वस्तु अशरीरी ईश्वर की इच्छा का अनुवर्तन कैसे कर सकता है ? - इसका निराकरण यह है कि शरीरादि भी जड ही है, फिर भी वह जीव की इच्छा का अनुवर्तन करता हुआ दिखाई देता है। यदि कहें कि-"शरीर जड होने पर भी वह जीव प्रयत्न से प्रेरित होकर जीव की इच्छा का अनुवर्तन कर सकता है"-तो यह कहने की कोई जरूर ही नहीं है क्योंकि ईश्वरात्मा में भी प्रयत्न का सद्भाव मान लेने में हमारी कोई क्षति नहीं है। शरीर के विना ईश्वरात्मा में प्रयत्न कैसे होगा?' यह भी कहने जैसा नहीं है, क्योंकि जीवात्मा का शरीर भी अन्य शरीर के विना ही जीव प्रयत्न से प्रेरित होता है यह देखा जाता है। निष्कर्ष:-विना कृषि से ही उत्पन्न होने वाले स्थावरों का कर्ता शरीराभाव के कारण ही नहीं दिखता है, अतः उसका वहाँ दर्शन नहीं होता इतने मात्र से वहाँ कर्ता का अभाव नहीं सिद्ध होता जिससे कि कार्यत्व हेतु को साध्यद्रोही कहा जा सके। जो लोग यह कहते हैं कि 'कार्य-कारण भाव की सिद्धि प्रत्यक्ष और अनपलम्भ से दी दो मका ईश्वर में यह सम्भव नहीं है अत: उससे कारणता कैसे सिद्ध होगी ?' उनसे यह प्रश्न है कि-यद्यपि कहीं कहीं प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ से कारणाभाव की सिद्धि होती है फिर भी इन्द्रिय और अदृष्ट ये दोनों अतीन्द्रिय हैं, अतः वहाँ प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ का संभव नहीं है तो उन दोनों में ज्ञानादि की कारणता कैसे सिद्ध होगी? जैसे इन दोनों में प्रत्यक्ष-अनुपलम्भ के विना कारणता सिद्ध होगी वैसे ईश्वर में भी हो सकेगी? निष्कर्षः-कार्यत्व और कर्ता की व्याप्ति असिद्ध नहीं है। [ कार्यत्व हेतु में सत्प्रतिपक्षतादि का निराकरण ] जब हेतु में व्याप्ति सिद्ध है तब प्रतिहेतु से यहाँ सत्प्रतिपक्षिता दोष होने की सम्भावना ही नहीं है । जब एक पक्ष में अपने साध्य के साथ व्याप्ति वाला हेतु सिद्ध हुआ तब उसी पक्ष में साध्यविरोधी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy