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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः ३९३ बुद्धिमतोऽपि ताभ्यां कारणत्वक्लप्तौ वह्नयादिभिस्तुल्यता। यथा वह्नयादिसामग्र्या धमादिर्जन्यमानो दृष्टः स तामन्तरेण कदाचिदपि न भवति, स्वरूपहानिप्रसंगात , तद्वव सर्वमुत्पत्तिमत् कर्तृ-करण-कर्मपूर्वकं दृष्टम् , तस्य सकृदपि तथादर्शनात तज्जन्यतास्वभावः, तस्यैवंस्वभावनिश्चितावन्यतमाभावेऽपि कथं भावः? ___ कि च, अनुपलभ्यमानकरी केषु स्थावरेषु कतुरनुपलम्भः शरीराद्यभावात , न त्वसत्त्वात् । यत्र शरीरस्य कर्तृता तत्र कुलालादेः प्रत्यक्षेणैवोपलम्भः, प्रत्र तु चैतन्यमात्रेणोपादानाद्यधिष्ठानात कथं प्रत्यक्षव्यापृतिः ? ! नाप्येतत वक्तव्यम्-'शरीराद्यभावाहि कर्तताऽपि न युक्ता'-कार्यस्य शरीरेण सह व्यभिचारवर्शनात-यथा स्वशरीरस्य प्रवृत्ति-निवृत्तो सर्वश्चेतनः करोति, ते च कार्यभूते, न च शरीरा. न्तरेण शरीरप्रवृत्ति-निवृत्तिलक्षणं कार्य चेतनः करोति तेन तस्य व्यभिचारः । अथ शरीरे एव दृष्टत्वात् नान्यत्र । तन्न, यतः कार्य शरीरेण विना करोतीति नः साध्यम् , तत् स्वशरीरगतमन्यशरीरगतं वेति नानेन किचित् । धूमात्मक कार्य को स्वरूपलाभ ही अशक्य होने से, अग्नि न दिखाई देने पर भी धूम हेतु से उसके सद्भाव की कल्पना (अनुमान) कर सकते हैं। ईश्वरस्थल में ऐसा नहीं है। उत्तर:-जब धूम की तरह पृथ्वी आदि में भी कार्यत्व का स्पष्ट उपलम्भ होता है तो विना कारण (कर्ता) ही आप उसके सद्भाव को कैसे मान लेते हैं ? शंका:-जिस का प्रभाव अन्यत्र दृष्ट है ऐसे कारण की कल्पना करना संगत है, पृथ्वी आदि के पीछे किसी बुद्धिमान कर्ता का प्रभाव कहीं भी दृष्ट नहीं है तो उसकी कल्पना क्यों करें ? उत्तरः-धूमादि के पीछे अग्नि का प्रभाव है यह कैसे जाना ? यदि प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ (यानी अन्वय-व्यतिरेक) से, यह कहा जाय तो बुद्धिमान कर्ता का प्रभाव भी अन्वय-व्यतिरेक से प्रासादादि कार्य के पीछे दृष्ट ही है, अत: अग्नि आदि और पृथ्वी आदि कार्यों में कोई अन्तर नहीं है। जैसे अग्नि आदि सामग्री से धूमादि की उत्पत्ति दिखाई देती है तो धूमादि अग्नि आदि के विना कभी उत्पन्न नहीं होता यह निश्चय किया जाता है, क्यों कि अग्नि के विना धूम को स्वरूपभ्रष्ट होने की आपत्ति है. ठीक उसी प्रकार, उत्पन्न होने वाली तमाम वस्त कर्ता-कर्म-करणादिपूर्वक ही देखी जाती है। अतः एक बार भी किसी कार्य की कर्ता-कर्म-करणादिपूर्वक उत्पत्ति को देखने पर कार्य में कर्तादिजन्यतास्वभाव निश्चित होता है । जब यह कर्तादिजन्यतास्वभाव कार्य में सुनिश्चित हुआ तो फिर कर्तादि में से एक की भी अनुपस्थिति में कैसे कार्योत्पत्ति होगी? [ कर्ता का अनुपलम्भ शरीराभावकृत ] यह भी जानना जरूरी है कि अनुपलब्धकर्तावाले स्थावरों में कर्ता की अनुपलब्धि शरीरादि के अभावप्रयुक्त है, किन्तु कर्ता के अभाव से नहीं है । जहाँ शरीरी कर्ता होता है वहाँ घटादिकार्य के कुम्भार आदि कर्ता की उपलब्धि प्रत्यक्ष से ही होती है । स्थावरादि स्थल में जो कर्ता है वह केवल अपने चैतन्य से ही स्थावरादि के उपादान कारणों को अधिष्टित कर लेता है, अत: वहाँ प्रत्यक्ष का क्या चल सकता है ? 'यदि स्थावरादि का कोई शरीरी कर्ता नहीं है तो कर्ता भी मानना कैसे युक्त होगा? ऐसा प्रश्न नहीं करना चाहिये, क्योंकि कार्य शरीरद्रोही भी देखा जाता है। जैसे कि-सभी जीवात्मा अपने शरीर का प्रवर्तन-निवर्तन करते हैं और प्रवर्तन-निवर्तन कार्यभूत ही हैं। किन्तु यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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