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________________ ३६२ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १ ननु निश्चितविपक्षवृत्तिर्यथा व्यभिचारी तथा संदिग्धव्यतिरेकोऽपि, उक्तेषु स्थावरेषु कत्रग्रहणं कि कत्रभावात् , आहोस्विद् विद्यमानत्वेऽपि तस्याऽग्रहणमनुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वेन? एवं संदिग्धव्यतिरेकत्वे न कश्चिद्धतुर्गमकः, धूमादेरपि सकलव्यक्त्याक्षेपेण व्याप्त्युपलम्भकाले न सर्वा वह्निव्यक्तयो दृश्याः, तासु चादृश्यासु धूमव्यक्तीनां दृश्यत्वे संदिग्धव्यतिरेकाशंका न निवर्तते-यत्र वह रदर्शने धमदर्शनं तत्र कि वह रदर्शनमभावात् , पाहोस्विद्नुपलब्धिलक्षणप्राप्तत्वादिति न निश्चयः । अतो धमोऽपि संदिग्धव्यतिरेकत्वान्न गमकः । अथ धमः कार्य हतभुजः, तस्य तदभावे स्वरूपानुपपत्तेरदृष्टत्वेऽप्यनलस्य सद्भावकल्पना । ननु तव कार्यमत्रोपलभ्यमानं किमितिकारणमन्तरेण कल्प्यते ? 'अथ दृष्टशक्तेः कारणस्य कल्पनाऽस्तु, माभूद् बुद्धिमतः' । वह्नयादेवू मादीन् प्रति कथं दृष्टशक्तिता ? 'प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामिति चेत् ? इसी प्रकार ईश्वर की कारणता भी फलबोध्य होने से प्रत्यक्ष से ईश्वरनिष्ठ कारणतास्वरूप का ग्रहण शक्य नहीं हैं यह सिद्ध हुआ। जब यह सिद्ध हुआ कि ईश्वर उपलब्धिलक्षण प्राप्त नहीं है, तब, जिन की उत्पत्ति को हम देख सकते हैं उन स्थावरों में हेतु का अवस्थान देखने पर, कर्तारूप साध्य को न देखने मात्र से व्याप्ति का भंग नहीं हो सकता जिससे कि स्थावरों को निश्चित विपक्षरूप मान कर उनमें रहने वाला कायत्व हेतु व्यभिचारी कहा जा सके। [कार्यत्व हेतु में व्यतिरेकसंदेह से व्यभिचार शंका का उत्तर ] शंकाः-विपक्ष का स्वरूप निश्चय हो जाने पर उसमें रहने वाला हेतु जैसे व्यभिचारी होता है, उसी तरह विपक्षरूप से जो संदिग्ध हो, उसमें हेतु के रहने पर विपक्षव्यावृत्ति का संदेह हो जाने से संदिग्धव्यतिरेकवाला हेतु भी व्यभिचारी ही बन जायेगा। संदेह इस प्रकार होगा-उन स्थावरों में कर्ता का ग्रहण कर्त्ता न होने से नहीं होता है ? या कर्ता होने पर भी वह उपलब्धि लक्षण प्राप्त न होने से उसका ग्रहण नहीं होता? समाधानः यदि इस प्रकार संदिग्धव्यतिरेक से व्यभिचार का आपादन किया जाय तो वह सर्वत्र सम्भवारूढ होने से कोई भी हेतु साध्यबोधक न हो सकेगा। देखिये-धूमादि में सकल-देश-काल व्यक्ति के अन्तर्भाव से अग्नि की व्याप्ति के उपलम्भ काल में भी सर्व अग्नि का साक्षाद उपलम्भ तो शक्य ही नहीं है, अतः जहाँ भी अग्नि का अदर्शन और धमव्यक्ति का दर्शन होगा वहाँ भी संदिग्धव्यतिरेक की शंका निवृत्त नहीं होगी। शंका इस प्रकार होगी, अग्नि न देखने पर भी जहाँ धूम दिखता है वहाँ क्या अग्नि नहीं होने से नहीं दिखता है ? या वह भी उपलब्धिलक्षणप्राप्त न होने से नहीं दिखता है ? कुछ भी निश्चय नहीं हो सकेगा। फलत: धूम हेतु भी संदिग्धव्यतिरेकवाला हो जाने से अग्निबोधक न हो सकेगा। [अग्निवत ईश्वर की कल्पना आवश्यक ] शंका:-धूम से अग्नि का बोध शक्य है क्योंकि वह अग्नि का कार्य है, अतः अग्नि के विना जीव इस शरीर का प्रवर्तन-निवर्तन कार्य अन्य किसी शरीर से नहीं करता, अत: कार्य शरीर का द्रोही है यह फलित होता है। यदि ऐसा कहें कि-अपने शरीर का प्रवचन-निवर्तन अन्य शरीर के विना भी प्रत्यक्षतः दृष्ट होने से मान लिया जाय, किन्तु शरीरभिन्न स्थावरादि की उत्पत्ति शरीर के विना कैसे मानी जा सकेगी ?-तो यह ठीक नहीं है-हमारा लक्ष्य यही सिद्ध करने में है कि अशरीरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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