________________
प्रथम खण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः
३९५
नापि हेतोविशेषविरुद्धता, तद्विरुद्धत्वे हेतोविशे ( ? दू )षणेऽभ्युपगम्यमाने न कश्चिद्धेतुरविरुद्धो भवेत , प्रसिद्धानुमानेऽपि विशेषविरुद्धानां सुलभत्वात । यथाऽयं धमो दहनं साधयति तथैतद्देशावच्छिन्नवह्नयभावमपि साधयति । नहि पूर्वधमस्यैतद्देशावच्छिन्नेन वह्निना व्याप्तिः । एवं कालाद्यवच्छेदेन हेतोविरुद्धता वक्तव्या । अथ देश कालादीन् विहाय वह्निमात्रेण हेतोर्याप्तेन विरुद्धता, तर्हि तहत कार्यमात्रस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन व्याप्तेर्यद्यपि दृष्टान्तेऽनीश्वरोऽसर्वज्ञः कृत्रिमज्ञानसम्बन्धी सशरीरः क्षित्याद्युपविष्ट: कर्ता तथापि पूर्वोक्तविशेषणानां मिविशेषरूपाणां व्यभिचारात तद्विपर्ययसाधकत्वेऽपि न विरुद्धता। विरुद्धो हि हेतुः साध्यविपर्ययकारित्वाद् भवति । न चैतेषां साध्यता, बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वमात्रस्यास्माद् हेतोः साध्यत्वेनेष्टत्वात् । यथा च विशेषविरुद्धादीनामदूषणत्वं तथा 'सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः' [ न्यायद० १-२-६ ] इत्यत्र सूत्रे निर्णीतम् ।
दूसरे किसी हेतु की सत्ता सम्भव ही नहीं है। क्योंकि एक ही पक्षभूत भाव साध्यवान् और साध्याभाववान् उभयात्मक नहीं हो सकता। कार्यत्व हेतु बाधित भी नहीं हो सकता, क्योंकि पक्ष में साध्य का अभाव प्रमाणसिद्ध होने पर हेतु बाधित होगा, यहाँ पृथ्वी आदि में वुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व का अभाव किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं है और जहाँ साध्य का अभाव रहेगा वहाँ हेतु का अभाव तो अनायास सिद्ध होगा ही, क्योंकि कार्यत्व हेतु बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वरूप स्वसाध्य का व्याप्य है यह सिद्ध हो चुका है। अतः यदि पक्ष में साध्य का बाध होगा तो हेतु का भी अभाव होने से हेतु बाधित होने की सम्भावना ही नहीं है । कर्तृत्वसाधक अनुमान में पक्षाऽसिद्धि भी नहीं है, क्योंकि कार्यत्व हेतु का अधिकरण पृथ्वी आदि प्रमाणप्रसिद्ध ही है और उसके कारणभूत जीवसमूह भी प्रमाणसिद्ध है। पृथ्वी आदि आश्रय में हेतुभूत कार्यत्व का सद्भाव जिन प्रमाणों से उपलब्ध है वह सब पहले ही दिखा दिया है । जब इस रीति से कार्यत्व हेतु से ईश्वर का पता लगाया जा सकता है तो ईश्वरसिद्धि में प्रमाण नहीं होने की बात में तथ्य नहीं।
[विशेषविरुद्धता सद्वेतु का दूषण नहीं है ] कार्यत्वहेतु में विशेषविरुद्धता दोष भी नहीं है। विशेषविरुद्धता को हेतु का दूषण मानने पर कोई भी हेतु निविरोध सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि प्रसिद्ध धूमहेतुक अग्नि अनुमानस्थल में भी विशेषविरुद्धादि दूषण सुलभ हैं । जैसे देखिये-धूम से अग्नि की सिद्धि जैसे हो सकेगी वैसे एतद्देश (पर्वत) से अवच्छिन्न अग्नि का अभाव भी सिद्ध होगा। कारण, पूर्वदृष्ट पाकशालादिगत धूम में जैसे अग्नि की व्याप्ति है वैसे पर्वतीय अग्नि के अभाव की व्याप्ति है । इसी तरह कालावच्छिन्न विशेष विरुद्धता भी कह सकते हैं-अर्थात् पूर्वदृष्ट धूम में एतत्कालावच्छिन्न अर्थात् एतत्कालीन अन्नि की व्याप्ति नहीं है, अतः एतत्कालीन अग्नि की सिद्धि में विरोध होगा। यदि ऐसा कहें कि-'धूम हेतु में अग्नि सामान्य की ही व्याप्ति है देशविशिष्ट या कालविशिष्ट अग्नि की नहीं, अतः पर्वतादि में सामान्य अग्नि की सिद्धि में तो कोई विरोध नहीं है'-तो उसी तरह प्रस्तुत में कार्यमात्र की बुद्धिमत्पूर्वकत्व के साथ ही व्याप्ति है अत: सामान्यतः कर्ता की सिद्धि में विरोध नहीं होगा। यद्यपि दृष्टान्त जो घटादि है उसका कर्ता अनीश्वर, असर्वज्ञ, अनित्यज्ञानवान , सशरीरी, पृथ्वी आदि के ऊपर बैठकर कार्य उत्पन्न करने वाला होता है, फिर भी ये सब जो पूर्वोक्त अनैश्वर्य असर्वज्ञत्वादि विशेषण हैं वे सामान्य कर्ता रूप धर्मी के विशेष धर्मरूप हैं और वे जगत्कर्ता ईश्वर में व्यभिचारी हैं अतः उन विशेषणों से विद्ध ऐश्वर्यशाली, सर्वज्ञता
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org