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________________ ३७० सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ इति स्मरणलिंगबलोद्भूतानुमान विषयेष्वप्यस्य समानत्वात् । न च स्वसंविदितविज्ञानवादिनोऽत्रापि समानो दोष इति वक्तुं युक्तम्, "यस्य यावती मात्रा" [ ] इति स्वसंविदितज्ञानस्याभ्युपगमात् । यच्च 'समनन्तरसहकारित्वाद्यनेकधर्मयुक्तत्वमेकक्षणे ज्ञानस्यासज्यते' इति प्रतिपादितम् तदभ्युपगम्यमानत्वेनाऽदूषणम् । अतः पौर्वापर्यव्यवस्थित हर्षविषादाद्यनेक पर्यायव्याप्येकात्मव्यतिरेकेण ज्ञानयोः स्वसन्तानेऽप्यनुसन्धाननिमितोपादानोपादेयभावाऽसम्भवाद् न परसन्तानवदनुसन्धानप्रत्ययः स्यात् । दृश्यते च श्रतोऽनेकत्वव्यावृत्तादनुसन्धानप्रत्ययादपि लिंगादात्मसिद्धिः । अपि स्याद्, गमकत्वं हि हेतोः स्वसाध्याऽविनाभावग्रहणपूर्वकं तद्ग्रहणं च धर्म्यन्तरे, न चाककर्तृकत्वेन साध्यर्धामव्यतिरिक्ते धर्म्यन्तरे प्रतिसन्धानस्य व्याप्तिः येन प्रतिसंधानादेकः astra | अथ ब्रूषे क्षणिकतासाधकस्य सत्ताख्यस्य हेतोर्यथा धर्म्यन्तरे व्याप्त्यग्रहणेऽपि गमकता [ 'मुझे कुछ पता नहीं चला' यह स्मरण अनुभवसाधक है ] पूर्वपक्षी ने जो यह दूषणोल्लेख किया था - ' - 'मुझे कुछ भी पता नहीं चला' इस प्रकार के उत्तरकालभावि स्मरण से निद्रावस्था में जो अनुभव का अनुमान किया जाता है वहाँ क्या वस्तुमात्र का असंवेदन है या अपने स्वरूप का असंवेदन है ? इत्यादि... [ पृ. पं. ३६६ / ३ ] - वह तो असार ही है क्योंकि ऐसा दूषण तो अन्यत्र भी लगा सकते हैं; जैसे कि, जाग्रत् अवस्था में चलते चलते होने वाला स्वसंविदित तृणस्पर्शज्ञान, तथा अश्व के विकल्पज्ञान के समय ही होने वाला गोदर्शन, इन दोनों का उत्तरकालभावि 'मुझे कुछ पता ही नहीं चला' इस प्रकार के स्मरणात्मक लिंग के बल से जो अनुमान किया जाता है उस अनुमान का विषय वह तृणस्पर्शानुभव और गोदर्शनानुभव भी पूर्वोक्त रीति से ही विवाद का विषय बनाया जा सकता है कि उक्त अनुभव में क्या वस्तु का ही असंवेदन है या अपने स्वरूप का असंवेदन ? इत्यादि । अतः निद्रावस्था के अनुभव में आपादित दूषण यहाँ समान होने से अकिचित्कर हो जाता है। । यदि कहें कि - "आप तो स्वसंविदितज्ञानवादी हैं अतः तृणस्पर्शज्ञान और गोदर्शन स्वसंविदित ही होगा, तो आपने जो समान दोष यहाँ दिखाया वह तो आपके ही मत में एक ओर दूषण प्रकट हुआ तो उससे हमारा क्या बिगड़ा ?” तो यह कहना युक्तिपूर्ण नहीं है क्योंकि 'यस्य यावती मात्रा ' अर्थात् जिसकी जितनी मात्रा संवेदनयोग्य हो उतने का ही संवेदन होता है, इस न्याय से स्वसंविदितज्ञान को भी हम उतनी ही मात्रा में स्वसंविदित मानते हैं जिससे 'मुझे कुछ पता ही नहीं चला' ऐसा स्मरण उपपन्न हो सके । ऐसा जो आपने कहा था कि- 'एक ही क्षण में ज्ञान में समनन्तरत्व - सहकारित्वादि अनेक धर्मों का मिश्रण प्रसक्त होता है' वह तो हम स्वीकारते ही है अतः वह कोई दूषण नहीं है । उपरोक्त रीति से यदि पूर्वापरभावव्यवस्थित हर्ष - शोक आदि पर्यायों में व्यापक एक आत्मा को नहीं माना जायेगा तो स्वसंतान के दो ज्ञान में भी अनुसंधान प्रतीतिनिमित्तभूत उपादानोपादेयभाव न घट सकने से अनुसन्धानप्रतीति नहीं होगी, जैसे कि उपादानोपादेयभाव के विरह में परसन्तानगतज्ञान के अनुसंधान की प्रतीति नहीं होती है । किन्तु, स्वसन्तानगतज्ञान की तो अनुसंधान प्रतीति होती है और यह अनुसंधान प्रतीतिअनुसंधाता के ऐक्यमूलक ही है अतः अनैक्यमूलकप्रतीति से भिन्न ऐसे अनुसंधानप्रत्यय से आत्मसिद्धि निर्बाध है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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