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________________ ३६८ सम्मतिप्रकरण - नयकाण्ड १ " यच्चोक्तम् 'अतज्जातीयादपि भावानामुत्पत्तिदर्शनात् यथा धूमादेः' इत्यपि न संगतम्, त नामाभिरतज्जातोयोत्पत्तिर्नाभ्युपगम्यते विलक्षणादपि पावकात् धूमोत्पत्तिदर्शनात् किन्तु कारणगतधर्मानुविधानं कार्यत्वाभ्युपगमनिबन्धनम्, तच्च ज्ञानस्य प्रदर्शितं प्राक् । न च काय - विज्ञानयोरिवानलधूमयोः सर्वथा वैलक्षण्यम्, पुद्गलविकारत्वेन द्वयोरपि सादृश्यात् । सर्वथा सादृश्ये च कार्यकारणभावाभावप्रसंग: एकत्वप्राप्तेः । यत्तु 'सदृशतादृशविवेकः कार्यनिरूपणायामपि दुर्लभः' तत्र यः कार्यदर्शनादपि विवेकं नावधारयितुं क्षमस्तस्यानुमानव्यवहारेऽनधिकार एव । तदुक्तम् - "सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति, अतस्तदवधारणे यत्नो विधेयः ।" [ ] अत एव 'रूपादीनां हि रूपादिपूर्वकत्वेन वा' इत्यादि अनभिमतोपालम्भमात्रम्, कथञ्चित् सादृश्यस्य कार्यकारणयोर्दशितत्वात्, तस्य च प्रकृते प्रमाणसिद्धत्वात् । जैसे जनकता होती है वैसे परसंतति में भी विज्ञान की जनकता समान ही है, अत: उपादान - उपादेयक्षणों में एक संतान की व्यवस्था करने के लिये आप पूर्वक्षण के विज्ञान में 'समनन्तरप्रत्ययत्व' इस विशेषरूप से कारणता का अंगीकार करते हैं, किंतु यदि वह व्यवस्था का निमित्तभूत धर्म ही काल्पनिक है तो उससे की गयी व्यवस्था को पारमार्थिक सत् कहना दुष्कर है । [ नास्तिक प्रयुक्त दूषण जैन मत में नहीं है - उत्तरपक्ष ] उपरोक्त नास्तिक के पूर्वपक्ष के प्रत्युत्तर में व्याख्याकार कहते हैं कि आपका यह सब दोषारोपण है वह बौद्ध मत के ऊपर लागू हो सकता है किन्तु जैन मत में वह निरवकाश है, क्योंकि हमने जैन प्रक्रियानुसार 'ज्ञानमात्र ज्ञानपूर्वक ही होता है' और 'ज्ञान का स्वरूप स्वसंविदित है' यह पहले सिद्ध किया हुआ है । [ पृ. ३२८ पं. ८ ] [ कार्यत्वाभ्युपगम कारणधर्मानुविधानमूलक है ] यह जो पूर्वपक्षी उपालम्भ देता था - असमानजातीय कारण से भी कार्य की उत्पत्ति दिखती है, उदा० अग्नि से धूम की उत्पत्ति । - यह उपालम्भ असंगत है, क्योंकि असमानजातीय कारण से कार्योत्पत्ति का हम इनकार नहीं करते हैं, यतः विलक्षण अग्नि से विलक्षण धूम की उत्पत्ति हम भी देखते हैं । किन्तु यह तो मानना ही होगा कि कार्यत्व की उपलब्धि कारणगतधर्मों के अनुसरणमूलक है। ज्ञान शरीरधर्मों का नहीं किन्तु आत्मधर्मों का अनुसरण करता है यह तो पहले दिखा दिया है [पृ. ३१५/६ ] देह और विज्ञान में तो कुछ भी सादृश्य नहीं है अपितु अत्यन्त वैलक्षण्य ही है जब कि अग्नि और धूम में उतना वैलक्षण्य नहीं है, क्योंकि दोनों ही पुद्गल के विकार ( = परिणाम ) ही हैं, अतः इतना सादृश्य भी है । सम्पूर्णतया सादृश्य की अपेक्षा रखना बेकार है, क्योंकि तब कार्य और कारण दोनों एक अभिन्न हो जाने से कारण-कार्यभाव का ही विलोप हो जायेगा । [ विवेककौशल का अभाव अधिकाराभाव का सूचक ] यह जो पूर्वपक्षी ने कहा है कि कारणों सादृश्य और तादृश्य का विवेक करना दुष्कर हैयहाँ कहना पडेंगा कि जो कार्य देख कर भी वैसे विवेक के अवधारण में असमर्थ है उस महाशय को अनुमानव्यवहार में अधिकार ही प्राप्त नहीं है, क्योंकि यह सुना जाता है कि- "अच्छी तरह निरीक्षित ( परीक्षित) कारण, कार्य का व्यभिचारी नहीं होता, इसलिये कारण की यथार्थ परीक्षा में यत्न करना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003801
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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