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प्रथमखण्ड-का० १ - परलोकवाद:
अस्तु वा तस्यामवस्थायां विज्ञानं, तथापि जनकत्वातिरिक्तव्यापारविशेषाभावः । समनन्तरप्रत्ययत्वे जनकत्वाऽतिरिक्तेऽभ्युपगम्यमाने तयोस्तास्विक भेदप्रसंगः, तथा च 'यदेवेकस्यां ज्ञानसन्ततौ समनन्तरप्रत्ययत्वं तदेव परसन्तताववलम्बनत्वेन जनकत्वम्' इत्येतन्न स्यात् । अथ जनकत्वसमनन्तरत्वादयो धर्माः काल्पनिकाः, अकल्पित तु यत् स्वरूपं तत्तात्विकं तच्च बोधरूपम् । किमिदानीं सांवृताद् रूपाद् भावानामुत्पत्तिः ? नेत्युच्यते, कथं वा काल्पनिकत्वम् ? अथ जनकत्वातिरिक्तस्य समनन्तरप्रत्ययत्वस्यैवमुच्यते, कथं तन्निबन्धना व्यवस्था ? तथाहि एकस्यां सन्ततौ परसंततिगतेन विज्ञानेन तुल्येsपि जनकत्वे समनन्तरप्रत्ययत्वेन जननविशेषसंगी कृत्येक संतानव्यवस्था क्रियते, यदा तु व्यवस्थानिबन्धनस्यापि सांवृतत्वं ततस्तत्कृताया व्यवस्थायाः परमार्थसत्त्वं दुर्भणमिति ।
अयमपि सौगतानां दोषो न जनानाम्, यतो 'ज्ञानपूर्वकत्वं ज्ञानस्य, स्वसंवेदनं च ज्ञानस्य स्वरूपम्' इत्येतत् प्राक् प्रसाधितम् ।
कहता है- आपने यह बहुत ही अच्छा कहा, अर्थात् विना सोचे ही कह दिया है । अब यह सोचिये कि 'मुझे कुछ पता ही नहीं चला' ऐसा बोलने वाला क्या a सुषुप्ति अवस्था वस्तु ( बाह्यवस्तु ) का असंवेदन ही बता रहा है या b विज्ञान के स्वरूप का असंवेदन ही बता रहा है ? 3 केवल वस्तु का असंवेदन कहेंगे तो इससे सकल पदार्थ का निषेध नहीं हो सकता क्योंकि ज्ञान का तो संवेदन होगा ही । b अगर कहें- ज्ञान के स्वरूप का भी संवेदन नहीं होता है तो यह बात विसंवाद के कारण दूर भाग जायेगी, क्योंकि आप तो ज्ञान को स्वसंविदित मानते हैं और यहाँ सुषुप्ति में ज्ञान होने पर भी उसका संवेदन नहीं होता, ऐसा प्रतिपादन कर रहें हैं, अतः स्पष्ट विसंवाद है । इस चर्चा से यही सार निकलता है कि सुषुप्तिकाल में जो सर्वथा ज्ञानाभाव होता है उसका सुषुप्ति उत्तरकाल में मन के व्यापार से अनुभव होता है, स्मरण नहीं ।
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[ सुषुप्ति में विज्ञान मान लेने पर भी व्यापारविशेषाभाव ]
[ नास्तिक:- ] अथवा सुषुप्ति अवस्था में विज्ञान को मान लिया जाय तो भी उसमें उत्तरक्षण के प्रति जनकत्व से अधिक कोई भी विशिष्ट व्यापार नहीं मानना चाहिये । [ तात्पर्य :- उपादानत्वादिरूप कोई विशेष व्यापार न होने से सजातीयोत्पत्ति पक्ष असिद्ध है ] । यदि उपादानत्व सिद्ध करने के लिये समनन्तरप्रत्ययत्व को जनकत्व से भिन्न मानेंगे तब तो जनकत्व और समनन्तरप्रत्ययत्व का वास्तविक भेद प्रसक्त होगा । इस स्थिति में यह कहना व्यथ होगा कि 'स्वकीय एक सन्तान में उत्पन्न होने वाले उत्तरक्षण के प्रति पूर्वक्षण में जो समनन्तरप्रत्ययत्व है वही परसंततिगतोत्तरक्षण के प्रति जनकत्व है' - क्योंकि आप दोनों को भिन्न मानते हैं ।
[ जनकत्वादिधर्मों की काल्पनिकता कैसे ? - नास्तिक ]
यदि यहाँ बौद्ध ऐसा कहें कि 'जनकत्व - समनन्तरप्रत्ययत्व आदि धर्म तो काल्पनिक हैं - उनमें भेद माने तो कोई हानि नहीं है । वस्तु का जो अकाल्पनिक स्वरूप होता है वही तात्त्विक होता है, और वह तो ज्ञानरूपता ही है ।' तो इसके उपर प्रश्न है कि क्या आप कल्पित जनकत्वादि रूप से भी भाव की उत्पत्ति मानने का साहस करते हैं ? यदि नहीं, तो फिर जनकत्वादि काल्पनिक कैसे माना जाय ? अगर कहें कि - 'हम जनकत्व को वास्तविक मानते हैं किन्तु समनन्तरप्रत्ययत्वादि को ही काल्पनिक मानते हैं तो फिर से यह प्रश्न होगा कि काल्पनिक समनन्तरप्रत्ययत्व से स्वसंतति में उपादानत्व की तात्त्विक व्यवस्था कैसे की जा सकेगी ? जैसे देखिये - एक संतति में उत्तरक्षण के प्रति
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